Book Title: Suman Vachanamrut
Author(s): Vijaya Kotecha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 11
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि आत्मशुद्धि, मनः शुद्धि के लिये होनी चाहिये । स्वच्छन्दता से, अहंकार से लोकलाज से, कुल धर्म के रक्षण के लिये तपश्चर्या न करें, आत्मार्थ के लिये करें । राजनेता आपने कभी ध्यान दिया होगा कि सत्ताधीश लोग जब गद्दी पर बैठे होते हैं तब उनकी दशा और किन्तु जब वे गद्दी से उतर जाते है तब उनकी दशा और हो जाती है । जिस सत्ताधीश में पराय बुद्धि रहती है, वह सदा हीं यश का पात्र होता है, आत्मसन्तुष्ट होता है । जो स्वार्थी होता है वह किसी के भी प्रति उदारता, सहयोग नहीं करता, जनता में अपयश का भागीदार बन कर पतित हो जाता है। ❀❀❀ साधक साधक / साधु हमेशा जप, तप, संयम में लीन रहता है, वह न किसी को वरदान देता है न अभिशाप देता है, फलतः वह निपट अध्यात्मवादी होता है । वह अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में मध्यस्थ / तटस्थ भाव से रहता है । अध्यात्म-साधना के लिए राग भाव और द्वेष भाव दोनों " अभिशाप" हैं । अतः साधु की साधना में यह खलना ही है । इसलिये साधु "वरदान" और "अभिशाप” दोनों से परे रहता है । ❀❀❀ मर्यादाएँ मर्यादाऐं बंधन कब बनती है ? जब मन न माने । जब मन ठीक हो तो ये बन्धन नहीं कहलाती । फिर ४२ Jain Education International मर्यादा मर्यादा रहती है, लक्ष्मण रेखा की तरह रक्षात्मक बन जाती है। इनके पीछे भाव जुड़ा रहता है मन का कि- “ये जो सीमा रेखाऐं हैं, मुझे / मेरी आत्मा को मेरी जीवन साधना के क्षेत्र में बनाये रखने के लिये है । नहीं तो कभी भी मैं उच्छृंखल / उदण्ड बन सकता हूँ, कभी भी लड़खड़ाकर बाहर गिर सकता हूँ। उसको थामने के लिये ये सीमा रेखाऐं हैं । मन पता नहीं कितने प्रकार की आशाएँ / इच्छाएँ संजोये बैठा है और उसकी पूर्ति के लिये बराबर प्रयत्न करता रहता है। जब मन में तृष्णा, वांछा, इच्छा, ऐन्द्रिक विषयों की तमन्नाएँ - बासनाएँ हो, फिर वहाँ सद्विचार कैसे आयेगा ? जहाँ कुत्सित विचारों का बोलबाला हो वहाँ सुविचारणा कैसे आयेगी ? ॐ ॐ ॐ कर्म कर्म क्या है ? मन, वाणी और शरीर द्वारा शुभअशुभ स्पन्दना का होना तथा क्रोधादि संक्लेश भावों से कार्य करना । वस्तुतः आत्मप्रदेशों पर कर्माणुओं का संग्रह होना कर्म है। उसका कालान्तर में जागृत होना कर्मफल का भोग | किया हुआ कर्म व्यर्थ नहीं जाता, वह फलवान् होता ही है । आदमी के चाहने न चाहने, मानने न मानने से कोई अन्तर नहीं पड़ता । * ॐ * हठधर्मिता अपने-अपने पक्ष को सत्य सिद्ध करने का आग्रह होने के कारण वैमनस्य उत्पन्न हो गया फलतः एक-दूसरे को घृणा एवं द्वेष की दृष्टि से देखने लगे । सत्य की For Private & Personal Use Only सुमन वचनामृत www.jainelibrary.org

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