Book Title: Suman Vachanamrut
Author(s): Vijaya Kotecha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 10
________________ वैराग्य भावना की आराधना किये बिना कोई भी पुरुष मुक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता । विराग का अर्थ विषयों से मन का भर जाना, मन का तृप्त हो जाना है । संसारेच्छा/भौतिक पदार्थों की इच्छा न रह कर चित्त में मोक्षाभिलाषा का उत्पन्न होना, उसी का नाम है - विराग । ( वैराग को संवेग के नाम से पुकारा जा सकता है। संवेग यानि “संवेगो मोक्षाभिलाषा” आत्मा का मोक्षाभिमुख प्रयत्न संवेग है । चिरकाल तक भोगों को भोग लेने पर भी जीव की तृप्ति नहीं होती । तृप्ति के बिना, चित्त रिक्त / खाली और उत्कंठित रहता है जैसे ईंधन से अग्नि । सहस्रों नदियों से समुद्र की तृप्ति नहीं होती, वैसे ही जीव काम - भोगों, शब्दादि से तृप्त नहीं होता। इसके लिए वैराग्य का शीतल जल ही शांति दे सकता है। धीर पुरुष और वैराग्य युक्त पुरुष स्वल्प शिक्षावाला, ज्ञान वाला होते हुए भी सिद्ध हो जाता है लेकिन विराग विहीन, सर्वशास्त्रों का ज्ञाता होता हुआ भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता । वैराग्य युक्त पुरुष कर्मों से मुक्त होता है । (विरागस्य भावः वैराग्यम्) वैराग्य है, तो नियत अच्छी रहती है। जिसकी नियत अच्छी है, उसमें विराग आ जाता है, जिसका मन विषयों से उपरत हो गया - शब्द, गंध, रस, रूप, स्पर्श की आसक्ति छट गई, उसे वैराग्यवान् कहते हैं । ॐ ॐ ॐ क्रिया किसी भी क्रियानुष्ठान को करने से पहले, उसकी विधि का, उसके स्वरूप का और उसमें लगने वाले जो दोष हैं, उसमें रहने वाली जो त्रुटियाँ हैं, उनकी जानकारी पहले कर लेनी चाहिये । सुमन वचनामृत Jain Education International सुमन वचनामृत जिस क्रिया में प्राण रहता है वही क्रिया हमारे जीवन का उद्धार और कल्याण करने में और हमारे मन को, जीवन को मोड़ने में समर्थ रहती है। जब तक हमारी क्रियायें प्राणवान् नहीं रहतीं, विवेक और ज्ञानपूर्ण नहीं रहती, तब वे जड़ कहलाती हैं। जब हम केवलमात्र ज्ञान को प्रमुखता देते हैं । क्रिया को गौण कर देते हैं, तब ज्ञान और विचार पक्ष प्रबल हो जाता है, वहाँ करने - कराने को कुछ नहीं रहता और केवल वचनों की, वाणी की ही मारामार है । ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति होती है और वही मूल मार्ग हमने छोड़ दिया। फिर मुक्तावस्था कैसे आयेगी ? कर्म आवरण कैसे दूर होगा ? अन्तरज्योति कैसे प्रकट होगी ? नहीं होगी। फलतः ऐसे जीव के लिये जो शुष्क ज्ञानी और जड़ क्रियावान् है न तो मोक्ष है और न ही मोक्ष का मार्ग है उसके लिये । जब अपने पर भरोसा नहीं है तो फिर परमात्मा पर भरोसा कैसे आयेगा? फिर संभ्रांत, दिशा विमूढ़ की भांति इतस्ततः संसार में भटकते रहोगे । इसलिये आत्मा पर विश्वास होना अति आवश्यक है। जहाँ आत्मा का अस्तित्व है, वहाँ पर लोक का अस्तित्व है, लोक है तो वहाँ कर्म का अस्तित्व है, कर्म है वहाँ क्रिया भी है । ❀❀ तप/त्याग केवल मात्र उपवास करने से इन्द्रियाँ वश नहीं होती, किन्तु उपयोग हो तो, विचार सहित हो तो वश में होती है, जिस तरह बिना लक्ष्य का बाण निरर्थक जाता उसी प्रकार बिना उपयोग के तप ( उपवास आदि) भी लाभदायक नहीं होता । तपः क्रिया मान-सम्मान, यशो - कीर्ति आदि ईहलोक और परलोक के लिये नहीं, बल्कि कर्म-निर्जरा, कर्मक्षय, For Private & Personal Use Only ४१ www.jainelibrary.org

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