Book Title: Suman Vachanamrut
Author(s): Vijaya Kotecha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 13
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि के साक्षात्कार का मार्गदर्शन कराता है वही शास्त्र है। जो साधक दुःख से छूटना चाहता है उसे सदा * जब-जब संत पुरुषों का सत्संग हुआ है - व्यक्ति / अपने समान गुणवाले अथवा अपने से अधिक गुणवाले बुरी आदतों से मुक्त हो गया। श्रमण के समीप रहना चाहिये। * वाणी को मलिन करने वाला तत्त्व राग और द्वेष * नैतिक व धार्मिक आचरण में बाधक, उन्हें मलिन है, उसके शांत हो जाने पर वाणी के दूषित होने का करनेवाली वस्तुओं / वृत्तियों को छोड़ देना 'त्याग' है। कारण ही नहीं रहता। * सहअस्तित्व बनाये रखने का मार्ग है - सहानुभूति और सहयोग। मोक्ष * अहंकार को नष्ट कर दे तो आदमी स्वयं ही * यदि मन में मोक्ष की तीव्र अभिलाषा जागृत हो परमात्मा बन जाता है। जाए तो मार्ग को व्यक्ति स्वयं हीं ढूंढ़ लेगा। लेकिन जहाँ * प्रमादकारी योगों से प्राणी के प्राणों का विनाश मन में रुचि नहीं है, वहाँ मार्ग का ज्ञान होते हुए भी वह उस पर चल नहीं सकता। करना हिंसा है। * बन्धुओं ! मोक्ष के मार्ग को बन्द किसने किया? * जीव ने प्रमाद के द्वारा दुख उत्पन्न किया है। मार्ग तो है बस यात्री की जरूरत है, चलने वाले चाहिये, * सज्जन पुरुषों की विद्या ज्ञान के लिये, धन दान चलेंगे तो निश्चित ही लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। के लिये और शक्ति रक्षा के लिये होती है। * व्यक्ति यदि दृढ़ संकल्पवान हो तो अभ्यास द्वारा * मन ही मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण / वह लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेगा। * मुक्ति सस्ती और आसान भी है। कहते हैं - .राग-द्वेष की उत्तेजना से रहित, मन की वृत्ति को “सिर के साठे हर मिले" परमात्मा की जो उपलब्धि सम रखते हुए वस्तु के प्रति आसक्ति को छोडना “त्याग" बलिदान के बदले है/अहंकार-त्याग, बलिदान ही परमात्मा का मिलन स्रोत है। * जिसने 'मेरी' अर्थात् ममत्व बुद्धि को छोड़ दिया, * मन के राग/द्वेष/कषाय और वासना के बन्धन में त्याग कर दिया वही परिग्रह को छोड़ता है। जो पुनः नहीं बंधता, उसे मुक्त कहा है। * आत्मा ही हमारे सम्पूर्ण गतिविधियों की साक्षी है, * काम निवृत्त मतिवान साधक संसार से शीध मुक्त दूसरा कोई नहीं। होजाता है। * अन्तःकरण का मिथ्याभिनिवेश, हठाग्रह, विपरीत .जड़ क्रिया और शुष्क ज्ञान मुक्ति में बाधक तत्त्व दृष्टि, कषाय, वासना में निमग्न रहना, ‘अन्तर भेद' है। हैं। * आस्था और ज्ञान के अभाव ने हमारी क्रियाओं * यदि प्रकाश रहेगा, सूझबूझ रहेगी तो हम कभी को जड़वत् बना दिया। भी नहीं भटकेंगे। सुमन वचनामृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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