Book Title: Suman Vachanamrut
Author(s): Vijaya Kotecha
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 7
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि लौकिक और लोकोत्तर जीवन - साधना में स्वेच्छाचार कैसे हितकर हो सकता है ? हम चाहे व्यवहारिक जीवन जीएं, या आध्यात्मिक जीवन गृही जीवन हो या सामाजिक जीवन या राष्ट्रीय जीवन में हों किंतु स्वच्छन्दता को रोकना बहुत आवश्यक है । जीवन में मोक्ष की बात तो बहुत दूर रही, जहाँ समाज के सदस्यों में स्वच्छन्दता आ जाये तो समाज भी नहीं चलता । देश भी छिन्न-भिन्न हो जाता है । उसकी व्यवस्था सब छिन्न भिन्न हो जाती है । फिर आत्मा मोक्ष को कैसे प्राप्त करेगी? कर्म के बंधन से वही मुक्त हो सकता है जो अपनी स्वच्छन्दता को रोक लेता है । स्वच्छन्दता आ जाने पर जीवन की हर साधना / क्रिया में विकृति आ जाती है । स्वच्छन्दता का सम्बन्ध किसी जाति /वर्ग विशेष से नहीं, उम्र या किसी वेष और लिंग से नहीं है । इसका सम्बन्ध हमारे ज्ञान से और शुद्ध चेतना से नहीं है । इसका सीधा सम्बन्ध मनुष्य की मन की वृत्ति से है । यह मोह से उत्पन्न मानसिक वृत्ति है । ॐॐॐ विनय - विवेक विनय की जीवन में अत्यन्त आवश्यकता है । व्यक्ति चाहे घर में रहे, चाहे घर से बाहर रहे। हर जगह विनय की अपेक्षा रहती है । विनय धर्म है, वह हर समय हमारे साथ रहना चाहिए। चाहे हम धर्म स्थान में हो, या धर्म स्थान से बाहर कहीं भी हो । विनय का सामान्य अर्थ है - नम्रता, विनम्रता, कोमलता। विनय का और भी अर्थ है अनुशासन, बड़ों की आज्ञा का पालन करना । विनय का विशेष अर्थ है आचार जो आचरण के योग्य है, उसको स्वीकार करके चलना 'विनय' है। ३८ Jain Education International जाने या अनजाने में कोई अधर्म, विवेकहीन कार्य हो जाये, तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिये। फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाये। [यही भगवान् महावीर के प्रवचन का सार है ] विषयासक्ति की मंदता, सरलता, सद्गुरु की आज्ञा का पालन, सुविचार, विवेक, करुणा, कोमलता आदि गुण रखनेवाले जीव परमात्म प्राप्ति की प्रथम भूमिका के योग्य हैं । आत्मार्थी / विवेकी व्यक्ति जहाँ जहाँ जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखें, अपने ज्ञान के माध्यम से उस वस्तु स्थिति को जान कर वैसा ही आचरण करें । मन में विनय, वाणी में विनय, काया की हर प्रवृत्ति में विनय, इस प्रकार विनय करते-करते एक समय ऐसी स्थिति आ सकती है जब यह आत्मा 'केवल ज्ञान' को पा लेता है। धर्म का मूल विनय है । विनय के बिना सब शून्य है, निरर्थक है। भाषा विवेक की कितनी उपयोगिता है? हम क्या कहते हैं ? हर समय मेरा मेरा करते रहते हैं । यही तो देहाध्यास है, वस्तु अध्यास है, ममत्व है, आत्मा को देह मान लिया, और देह को आत्मा मान लिया । यही हमारे बंधन का मूल कारण है । ❀❀❀ ज्ञान व सम्यक् दृष्टि ज्ञान दृष्टि से अपने आप को देखो, विषमताएँ स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी । जिससे तत्त्व जाना जाय, जिससे चित्त का निरोध हो, जिससे आत्मा की विशुद्धि हो, उसे हीं जिन शासन ज्ञान कहा है। For Private & Personal Use Only सुमन वचनामृत www.jainelibrary.org

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