Book Title: Suktmuktavali Author(s): Bhupendrasuri Publisher: Bhupendrasuri Jain Sahitya Samiti View full book textPage 7
________________ Coran प्राथमिक-वक्तव्य प्रियपाठकगण ! जैनसाहित्य द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरितानुयोग और धर्मकथानुयोग इन चार विभागों में विभक्त । है । प्रस्तुत ग्रन्थ इन विभागों में से धर्मकथानुयोग का ही एक शुभ ग्रंथ है। इस ग्रंथ का निर्माम विक्रमसं. १७१४ में पं. श्री । केशरत्रिमलजी मणिवरने किया है जो कि-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों विभागों में विभक्त है ग्रंथप्रणेताने इस ग्रंथ में : हरएक विषय पर भाषा छन्द देकर उसका विवेचन अच्छे ढंग से किया है और प्रत्येक विषय की पुष्टि करने के लिए शास्त्रीय । का प्रमाणों से युक्त कथाएं देकर ग्रंथ की उपादेयता को और भी बढ़ा दी है । प्रायः यह ग्रंथ मालिनी छन्द में ही विशेष निबद्ध है । || और अनेक विषय की उपदेशरूप सूक्तोक्ति होने के कारण ग्रंथ का नाम भी 'यथा नाम तया गुणः' इस कहावत के अनुसार | प्रक्तमुक्तावली ऐसा यथार्थ नाम रखा गया है । यह ग्रंथ भीनसिंह माणक के द्वारा मुद्रित होचुका है। इस ग्रंथ की भाषा १८वीं शताब्दी में प्रचलित गूर्जर व अन्यदेशीय भाषाओं से मिश्रित है। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिये इस ग्रन्थका मनन काना अत्यावश्यक है। कर्ताने हेय उपादेय विषयों का दिग्दर्शन अच्छी शैली से किया है। ऐसे अमूल्य और योग्य प्रेय के विषय से. संस्कृत केPage Navigation
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