Book Title: Streemukti Anyatairthikmukti evam Savastramukti ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf

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Page 3
________________ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न ११५ शारीरिक रचनाएँ। लिंग के इस प्रथम अर्थ की दृष्टि से उसमें उत्तराध्ययन के समान ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों लिंगों से मुक्ति का उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि प्रत्युत्पन्न भाव अर्थात् वर्तमान में काम-वासना की उपस्थिति की दृष्टि से अवेद अर्थात् काम-वासना से रहित व्यक्ति की ही मुक्ति होती है। किन्तु पूर्व भव की अपेक्षा से तो तीनों वेदों से सिद्धि होती है। साथ ही उसमें लिंग का अर्थ वेश करते हुए कहा गया है प्रत्युत्पन्न भव अर्थात् वर्तमान भव की अपेक्षा से तो अलिंग अर्थात् लिंग के प्रति ममत्व से रहित व्यक्ति ही सिद्ध होते हैं, किन्तु पूर्व भवलिंग की अपेक्षा से स्वलिंग ही सिद्ध होते हैं। पुनः द्रव्यलिंग अर्थात् बाह्य वेश की अपेक्षा से स्वलिंग, अन्यलिंग और गृहलिंग तीनों ही विकल्प से सिद्ध होते हैं। तत्त्वार्थभाष्य के पश्चात् तत्त्वार्थ की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं में सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि वेद की दृष्टि से तीनों वेदों के अभाव में ही सिद्धि होती है। द्रव्यलिंग अर्थात् शारीरिक संरचना की दृष्टि से पुल्लिग ही सिद्ध होते हैं किन्तु भूतपूर्व नय की अपेक्षा से तो सग्रन्थलिंग से भी सिद्धि होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि मुक्ति पुरुष लिंग से ही प्राप्त हो सकती है। उसके पश्चात् राजवार्तिककार अकलंक भी सर्वार्थसिद्धि के उल्लेख का ही समर्थन करके रह जाते हैं। उससे अधिक वे भी कुछ नहीं कहते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकमूलभाष्य ( पाँचवीं शती ), विशेषावश्यकभाष्य ( छठी शती ) और आवश्यकचूर्णि ( सातवीं शती ) में हमें अचेलकत्व और सचेलकत्व के प्रश्न को लेकर आर्य शिवभूति और आर्य कृष्ण के मध्य हुए विवाद के पक्ष और प्रतिपक्ष के विविध तर्कों का उल्लेख तो मिलता है किन्तु चूर्णि के काल तक अर्थात् सातवीं शताब्दी के अन्त तक हमें एक भी संकेत ऐसा नहीं मिलता, जिसमें श्वेताम्बर आचार्यों ने स्वीमुक्ति का तार्किक समर्थन किया हो। इससे ऐसा लगता है कि सातवीं शताब्दी तक उन्हें इस तथ्य की जानकारी भी नहीं थी कि स्त्रीमुक्ति के सन्दर्भ में कोई प्रतिपक्ष भी है। स्त्री की प्रव्रज्या ( महाव्रतारोपण ) और स्त्रीमुक्ति का निषेध सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द ने लगभग छठी शताब्दी में किया और उस सम्बन्ध में अपने कुछ तर्क भी दिये। पूज्यपाद ने स्त्रीमुक्ति का निषेध तो किया, फिर भी उन्होंने स्त्रीमक्ति के खण्डन के सन्दर्भ में कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया। आचार्य कुन्दकुन्द ने ही सर्वप्रथम सुत्तपाहुड में यह कहा है कि जिन मार्ग में सवस्त्र की मुक्ति नहीं हो सकती चाहे वह तीर्थङ्कर ही क्यों न हों ?' सवस्त्र की मुक्ति के निषेध में स्त्रीमुक्ति का निषेध गर्भित है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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