Book Title: Streemukti Anyatairthikmukti evam Savastramukti ka Prashna Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 2
________________ ११४ स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न धवलाटीका में भी प्रकीर्णक ग्रन्थ के रूप में उत्तराध्ययन का उल्लेख पाया जाता है। पाश्चात्य विद्वानों ने उत्तराध्ययन को ई० पू० तृतीय से ई० पू० प्रथम शती के मध्य की रचना माना है। उत्तराध्ययन की अपेक्षा किंचित् परवर्ती श्वेताम्बर मान्य आगम ज्ञाताधर्मकथा (ई० पू० प्रथम शती ) में मल्लि नामक अध्याय ( ई० सन् प्रथम शती ) में तथा अन्तकृद्दशांग के अनेक अध्ययनों में स्त्रीमुक्ति के उल्लेख हैं। आगमिक व्याख्या आवश्यकचूर्णि ( सातवीं शती ) में भी मरुदेवी की मुक्ति का उल्लेख पाया जाता है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थ कषायप्राभृत एवं षखण्डागम भी स्त्रीमुक्ति के समर्थक हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि ईस्वी सन् की पाँचवीं-छठी शताब्दी तक जैन-परम्परा में कहीं भी स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं था। स्त्रीमुक्ति एवं सग्रन्थ ( सवस्त्र ) की मुक्ति का सर्वप्रथम निषेध आचार्य कुन्दकुन्द ने सुत्तपाहुड में किया है। यद्यपि यापनीय ग्रन्थ षटखण्डागम भी सुत्तपाहुड का ही समकालीन ग्रन्थ माना जा सकता है, फिर भी उसमें स्त्रीमुक्ति का निषेध नहीं है, अपितु मूल-ग्रन्थों में तो पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में चौदह गुणस्थानों की सम्भावना स्वीकारकर प्रकारान्तर से उसकी तद्भव मुक्ति स्वीकार की गई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्त्रीमुक्ति के निर्देश हमें ईस्वी पूर्व के आगमिक ग्रन्थों से लेकर ईसा की सातवीं शती तक की आगमिक व्याख्याओं में मिलते हैं। फिर भी उनमें कहीं भी स्त्रीमुक्ति की तार्किक सिद्धि का कहीं कोई प्रयत्न नहीं देखा जाता। इसकी तार्किक सिद्धि की आवश्यकता तो तब होती, जब किसी ने उसका निषेध किया होता! स्त्रीमुक्ति का निषेध कुन्दकुन्द के पूर्व किसी भी आचार्य ने किया हो, ऐसा एक भी प्रमाण नहीं है। यद्यपि यह विवाद का विषय रहा है कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की रचना है या नहीं। फिर भी एक बार यदि हम यह मान भी लें कि सुत्तपाहुड कुन्दकुन्द की ही रचना है, तो भी उस ग्रन्थ एवं उसके कर्ता का काल छठी शताब्दी के पूर्व का तो नहीं हो सकता, क्योंकि कुन्दकुन्द की रचनाओं में गुणस्थान और सप्तभंगी की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं जो लगभग पाँचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आ चुकी थीं। एम० ए० ढाकी ने कुन्दकुन्द के समय पर पूर्व मान्यताओं की समीक्षा करते हुए विस्तार से विचार किया है और वे उन्हें छठी शताब्दी के पूर्व का किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं करते हैं।५ तत्त्वार्थभाष्य ( लगभग चतुर्थ शती ) में सिद्धों के अनुयोगद्वार की चर्चा करते हुए लिंगानुयोगद्वार की दृष्टि से भी विचार किया गया है।' भाष्य की विशेषता यह है कि वह लिंग शब्द पर उसके दोनों अर्थों की दृष्टि से विचार करता है। अपने प्रथम अर्थ में लिंग का तात्पर्य है – पुरुष, स्त्री या नपुंसक रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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