Book Title: Streemukti Anyatairthikmukti evam Savastramukti ka Prashna
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
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स्त्रीमुक्ति, अन्यतैर्थिकमुक्ति एवं सवस्त्रमुक्ति का प्रश्न
परवर्ती श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में जो भी चर्चा हुई, वह मुख्य रूप से स्त्रीमुक्ति के प्रश्न को लेकर ही हुई। गृहस्थ एवं अन्यतैर्थिक की मक्ति का प्रश्न वस्तुत: स्त्री के प्रश्न से ही जुड़ा हुआ था। अतः परवर्ती साहित्य में इन दोनों के सम्बन्ध में पक्ष व विपक्ष में कुछ लिखा गया हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है। तत्वार्थश्लोकवार्तिक २९ में विद्यानन्द ने एकमात्र तर्क यह दिया है कि 'यदि सग्रन्थ अवस्था में मुक्ति होती है तो फिर परिग्रह-त्याग की क्या आवश्यकता है ?' जिस प्रकार यापनीय आचार्य 'शाकटायन' ने और श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र आदि ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में विविध तर्क दिये उसी प्रकार के तर्क गृहस्थ या अन्यतैर्थिक की मुक्ति के सम्बन्ध में यापनीय एवं श्वेताम्बर आचार्यों ने नहीं दिये हैं। सम्भवत: इसका कारण यही रहा कि जब एक बार सचेल स्त्री की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार की जाती है तो फिर गृहस्थ और अन्यतैर्थिक की मुक्ति की सम्भावना स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं रहती, क्योंकि गृहस्थ और अन्यतैर्थिक की मुक्ति का प्रश्न सीधा स्त्रीमुक्ति की समस्या के साथ जुड़ा हुआ था। अत: उस पर स्वतन्त्र रूप से पक्ष व विपक्ष में अधिक चर्चा नहीं हुई है।
जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है वे स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ गृहस्थ एवं अन्यतैर्थिक की मुक्ति स्वीकार करते थे। यापनीय ग्रन्थों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। आचार्य हरिषेण के 'बृहत्कथाकोश" में स्पष्ट रूप से गृहस्थ मुक्ति का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत से अन्वित और मौनव्रत से समन्वित मुमुक्षु सिद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार हरिवंशपुराण (जिनसेन और हरिषेण ) में भी अन्यतैर्थिक की मुक्ति का उल्लेख किया गया है। उसके बयालीसवें सर्ग में नारद को 'अन्त्यदेह' कहा गया है। पुन: उसके पैंसठवें सर्ग में तो स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि - "नरश्रेष्ठ नारद ने प्रवजित होकर तपस्या के बल से भव-परम्परा का क्षय करके अक्षय मोक्ष को प्राप्त किया। इसके विपरीत दिगम्बर ग्रन्थों में नारद को नरकगामी कहा गया है। इससे यह फलित होता है कि यापनीय परम्परा, श्वेताम्बर परम्परा की ही तरह उदार थी और स्त्रीमुक्ति के साथ-साथ अन्यतैर्थिक एवं गृहस्थों की मक्ति की सम्भावना को भी स्वीकार करती थी।
सन्दर्भ १. इत्थीपुरिससिद्धा य तहेव य नपुंसगाः । सलिंगे अन लिंगे य गिहि लिंगे तहेव य ।। -- उत्तराध्ययन, संपादक साध्वी चंदनाजी, वीरायतन प्रकाशन,
_आगरा, १९७२, ३६/४९.
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