Book Title: Sthanang Sutra ka Mahattva evam Vishay Vastu Author(s): Parasmani Khincha Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 5
________________ 106.". [136.........: जिनवाणी-- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क गर्हापद, प्रत्याख्यान पद आदि २३ विषयों का उल्लेख है। जीव और अजीव, त्रस और स्थावर, सयोनिक और अयोनिक, आयु सहित और आयु रहित, इन्द्रिय सहित और इन्द्रिय रहित, वेद सहित और वेद रहित, आस्रव और संवर, वेदना और निर्जरा आदि का वर्णन है और ये द्विपदावतार पद कहलाते हैं। इसी तरह इसमें दो क्रिया, दो विद्या चरण आदि पदों के आधार पर जीवों के विविध स्थानों की व्याख्या की गई है। द्रव्य दो प्रकार के कहे गए हैं.. १. परिणत और २. अपरिणत।। द्वितीय उद्देशक-इसमें वेदना, गति, आगति, दण्डक--मार्गणा, अवधिज्ञान–दर्शन, देशत:-सर्वत: श्रवणादि, शरीर आदि का उल्लेख है। गति-आगति पद में कहा है- नारक जीव दो गति और दो आगति वाले कहे गए हैं। नैरयिक (बद्ध नरकायुष्क) जीव मनुष्य से अथवा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में से (जाकर) उत्पन्न होता है। इसी प्रकार नारकी जीव नारक अवस्था को छोड़कर मनुष्य अथवा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनि में उत्पन्न होता तृतीय उद्देशक-इसमें शरीर-पद, पुद्गल-पद, इन्द्रिय-विषय-पद, आचार-पद, प्रतिमा--पद आदि ३४ पदों का उल्लेख है। प्रस्तुत उद्देशक के आचार पद में आचार दो प्रकार का कहा गया है -१. ज्ञानाचार और २. नो ज्ञानाचार। १. दर्शनाचार और २. नो दर्शनाचार। १. चारित्राचार और २. नो चारित्राचार । १. तप आचार और २. वीर्याचार।" चतुर्थ उद्देशक- इसमें जीवाजीव पद, कर्म पद, आत्मनिर्माण पद आदि २१ पदों का वर्णन है। बन्ध के प्रेयोबन्ध और द्वेषबन्ध ये दो भेद किए हैं। जीव दो स्थानों से पापकर्म का बन्ध करते हैं राग से ओर द्वेष से। जीव दो स्थानों से पापकर्म की उदीरणा करते हैं- आभ्युपगमिकी वेदना से और औपक्रमिकी वेदना से। जीव दो स्थानों से पाप कर्म की निर्जरा करते हैंआभ्युपगमिकीवेदना से और औपक्रमिकी वेदना से। (3) तृतीय स्थान प्रस्तुत स्थान के चार उद्देशक हैं, जिनमें तीन-तीन की संख्या से संबद्ध विषयों का निरूपण किया गया है। प्रथम उद्देशक- इसमें इन्द्र पद, विक्रिया पद, संचित पद आदि के ४८ सूत्र हैं। इन्द्र पद में इन्द्र तीन प्रकार के कहे गए हैं- १. नाम इन्द्र २. स्थापना इन्द्र ३. द्रव्य इन्द्र। इसी प्रकार १. ज्ञान इन्द्र २. दर्शन इन्द्र और ३. चारित्र इन्द्र ये तीन भी इन्द्र के भेद हैं। इस तरह इन्द्र के भेद-प्रभेद आदि का विस्तार से वर्णन है। इसमें परिचारणा, योग, करण आदि के भेदों का भी उल्लेख है। द्वितीय उद्देशक- इसमें लोक सूत्र, परिषद् सूत्र, याम सूत्र, वय: सूत्र आदि २० सूत्रों का वर्णन किया गया है। इसके बोधि सूत्र में बोधि के तीन भेट किए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10