Book Title: Sthanang Sutra ka Mahattva evam Vishay Vastu
Author(s): Parasmani Khincha
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 4
________________ | स्थानांग सूत्र का महत्व एवं विषय वस्तु 1351 स्थानांग में भेद-प्रभेद मूलक प्रस्तुतीकरण में ऐसा नहीं है। स्थानांग सूत्र में प्रतिपादित विषय एक से दस तक की संख्या में निबद्ध हैं। इसके दश अध्ययनों का एक ही श्रुत स्कन्ध है। प्रथम अध्ययन उद्देशक रहित है। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार स्थानाग सूत्र दश अध्ययनों और इक्कीस उद्देशकों में विभक्त है। संक्षेप में स्थानांग का विषय सूची इस प्रकार हैस्थानांग में वर्णित विषय ०१ स्वसिद्धान्त, परसिद्धान्त और स्व-पर सिद्धान्त का वर्णन । ०२. जीव, अजीव और जीवाजीव का कथन। ०३. लोक, अलोक और लोकालोक का कथन । ०४. द्रव्य के गुण और विभिन्न क्षेत्रकालवर्ती पर्यायों पर चिन्तन। ०५. पर्वत, पानी, समुद्र, देव, देवों के प्रकार पुरुषों के विभिन्न प्रकार, स्वरूप, गोत्र, नदियों, निधियों और ज्योतिष्क देवों की विविध गनियों का वर्णन। ०६. एक प्रकार, दो प्रकार, यावत् दस प्रकार के लोक में रहने वाले ___ जीवों और पुद्गलों का निरूपण। ०७. ऐतिहासिक एवं पौराणिक विवेचन। ०८. विविध नामावलियाँ। ५. कर्म सिद्धान्त की सार्थकता। १०. नय, स्यावाट, निशेष दृष्टि। ११. एक ही विषय का दृष्टान्त रूप में प्रस्तुतीकरण (1) प्रथम स्थान इसमें प्रत्येक वस्तु का कथन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दार्शनिक आधारों पर किया गया है। इसमें मूलत: नय दृष्टि और निक्षेप दृष्टि का समावेश है। नय में भी इस स्थान में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय है। इसमें अनेक विषयों के चार-चार पद गिनाये गए हैं। इसके प्रथम स्थान में अस्तित्त्व सूत्र, प्रकीर्णक सूत्र, पुद्गल सूत्र आदि के माध्यम से अठारह तथ्यों का उल्लेख है। 'एगे आया—एगे मणे, एगा वाई आदि वाक्यों के माध्यम से एक संख्या से विविध तथ्यों का विवेचन किया गया है। इसके सिद्धपद में तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध, तीर्थकर सिद्ध, स्वयंसिद्ध, प्रत्येकबुद्धसिद्ध इत्यादि की एक-एक वर्गणाएँ कही गई है। (2) द्वितीय स्थान द्वितीय स्थान में चार उद्देशक हैं। इसमें व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य, वस्तु या पदार्थ आदि के दो-दो भेद प्रतिपादित किए गए हैं। प्रथम उद्देशक- द्वितीय स्थान के प्रथम उद्देशक में द्विपदावतारपद. क्रियापद, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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