Book Title: Sthanang Sutra ka Mahattva evam Vishay Vastu Author(s): Parasmani Khincha Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 8
________________ स्थानांग सूत्र का महत्त्व एवं विषय वस्तु 1991 किया गया है। सात संख्या वाले अनेक दार्शनिक, भौगोलिक, ज्योतिष्क, ऐतिहासिक, पौराणिक आदि विषयों का वर्णन है। एक उद्देशक है। प्रस्तुत स्थान में ही जीव विज्ञान, लोक स्थिति संस्थान, गोत्र, नय, आसन, पर्वत, धान्य स्थिति, सात प्रवचन निव, सात समुद्घात आदि विविध विषयों का संकलन है। इसके सप्त स्वरों के वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में संगीत विज्ञान का कितना महत्व था। इसमें श्रेष्ठता के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन किया है। राजाओं में चक्रवर्ती राजा श्रेष्ठ होता है। रत्नों में होरक्त, संघ में आचार्य और उपाध्याय का प्रमुख स्थान होता है। प्रस्तुत स्थान में गणापक्रमण सूत्र, विभंग ज्ञान सूत्र, संग्रह स्थान सूत्र, असंग्रह स्थान सूत्र आदि ४७ स्थानों का वर्णन है। इसी में बादरवायुकायिक सूत्र में बादर वायुकायिक जीवों का वर्णन है— १. पूर्व दिशा संबंधी वायु २. पश्चिम दिशा सम्बन्धी वायु. ३. दक्षिण दिशा सम्बन्धी वायु ४. उत्तर दिशा संबंधी वायु ५. ऊर्ध्व दिशा सम्बन्धी वायु ६. अधोदिशा सम्बन्धी वायु और ७. विदिशा सम्बन्धी वायु जीव।" (8) अष्टम स्थान आठवें स्थान में आठ की संख्या से संबंधित विषयों का संकलन किया गया है। प्रस्तुत स्थान में भी एक उद्देशक है। इसमें एकलविहार प्रतिमा सूत्र, योनि संग्रह सूत्र, गति-अगति सूत्र. कर्म बन्ध सूत्र , दर्शनसूत्र आदि ६१ स्थानों का वर्णन है। प्रस्तुत उद्देशक के महानिधि सूत्र में बताया गया है कि चक्रवर्ती की प्रत्येक महानिधि आठ-आठ पहियों पर आधारित है। आठ-आठ योजन ऊंची कही गयी है। (9) नवम स्थान इसमें नौ-नौ की संख्याओं से संबंधित विषयों का संकलन है। प्रस्तुत स्थान में एक उद्देशक है। विसंभोग सूत्र, जीव सूत्र, गण सूत्र, कूट सूत्र आदि ४१ स्थानों का वर्णन है। प्रस्तुत स्थान के संसार सूत्र में बनाया गया है कि जीव नौ स्थानों से (नौ पर्यायों में) संसार परिभ्रमण करते हैं, कर रहे हैं, और आगे करेंगे। जैसे १.पृथ्वीकायिक रूप से २. अप्कायिक रूप से ३. तैजसकायिक रूप से ४. वायुकायिक रूप से ५. वनस्पतिकायिक रूप से ६. द्वीन्द्रिय रूप से :७. त्रीन्द्रिय रूप से ८. चतुरिन्द्रिय रूप से ९. पंचेन्द्रिय रूण से। (10) दशम स्थान - इसमें दस की संख्या से संबंधित विविध विषयों का वर्णन है। लोकस्थिति, इन्द्रियों के विषय, पुद्गल और क्रोध की उत्पत्ति का विस्तार से विवेचन है। स्वाध्याय काल, धर्म पद, स्थविरों के भेद, भगवान महावीर के स्वप्न आदि का विवेचन भी है। दशम स्थान उद्देशक रहित है। इसमें लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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