Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानांग सूज का महत्व एवं विषय वस्तु
डॉ. पारसमणि खींचा स्थानांग में एक से लकर दश तक को संरल्याओं: स्थानों में धर्म, इतिहास, रखगोल, भूगोल, दर्शन, आचार आदि से सम्बद्ध तथ्यों का कोश की तरह संकलन है तध्यो को समझने एवं स्मरण रखने की दृष्टि से यह एक विशिष्ट शैली है : स्थानांगसूत्र मे निरूपित विभिन्न जानकारया ज्ञान को दो समृद्ध बनाती ही हैं. 'कन्तु जीवन को सम्यक उत्कर्ष की दिशा भी प्रदान करती हैं। डॉ० पारसींग जी ने संक्षेप में स्थानांग सूत्र के महत्व एवं विषयवस्तु से परिचित कराया है।
-सम्पादक
आगमों में स्थानांग सूत्र का तीसरा स्थान है। इसे जैन संस्कृति का विश्वकोष भी कहा जाता है। यह शब्द 'स्थान' और 'अंग' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। 'रथान' शब्द के अनेक अर्थ हैं। आचार्य देववाचक
और गुणधर ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव, पुद्गल आदि के विविध भाव वर्णित हैं। जिनदासगणि महत्तर का अभिमत है- जिसका स्वरूप स्थापित किया जाए व ज्ञापित किया जाए, वह स्थान है। इस आगम में एक से लेकर दश तक संख्या वाले पदार्थो का उल्लेख है, अत: इसे स्थान कहा गया है। इसमें संख्या क्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गयी है। अत: इसका नाम 'स्थान' या 'स्थानांग' है। आचार्य गुणधर स्थानांग का परिचय देते हुए कहते हैं कि स्थानांग में संग्रहनय और व्यवहारनय की दृष्टि से समझाया गया है। संग्रहनय की दृष्टि से एकता का और व्यवहारनय की दृष्टि से भिन्नता का प्रतिपादन किया गया
संग्रहनय की अपेक्षा जीव चैतन्य गुण है। व्यवहारनय की दृष्टि से प्रत्येक जीव अलग-अलग हैं। इसमें ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से भी जीव तत्त्व का विभाजन किया गया है। पर्याय की दृष्टि से एक तत्त्व अनन्त भागों में विभक्त होता है और द्रव्य की दृष्टि से अनन्त भाग एक तत्त्व में परिणत हो जाते हैं।
इस प्रकार स्थानांग में संख्या की दृष्टि से जीव, अजीव प्रभृति द्रव्यों की स्थापना की गयी है। इसमें भेद और अभेद की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु-तत्त्व का विवेचन किया गया है। स्थानांग का महत्त्व
स्थानांग में एक विषय का दूसरे विषय के साथ किसी तरह का संबंध नहीं है। इसमें इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, आचार, मनोविज्ञान आदि शताधिक विषय संकलित हैं। प्रत्येक विषय का विस्तार से चिन्तन करने की अपेक्षा संख्या के आधार पर विषय का आकलन किया गया है। प्रस्तुत आगम में अनेक ऐतिहासिक सत्य घटनाएँ भी हैं। इसमें कोश की
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
| स्थानांग सूत्र का महत्त्व एवं विषय वस्तु शैली अपनायी गयी है। यह शैली स्मरण करने की दृष्टि से उपयोगी है। यह एक ऐसी शैली है जो जैन आगमों के अलावा वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त है। यह भेद-प्रभेद की दृष्टि को भी लिए हुए है।
अंग-आगमों के क्रम में स्थानांग को तीसरे स्थान पर रखने का तात्पर्य यह रहा होगा कि नवदीक्षित साधु प्रथम आचाराग और द्वितीय सूत्रकृतांग में परिपक्व बने फिर वह नियमों से परिचित होकर हेय-उपादेय को समझे, उस पर विचार करे। उसमें परिनिष्ठ एवं परिपक्व होकर ज्ञातव्य विषयों की नामावली को जाने और उनके सामान्य रूप से परिचित हो।
स्थानांग और समवायांग को बुद्धिगम्य कर लेने के अनन्तर एक प्रकार से श्रुत साधक समस्त आगमों का वेत्ता हो जाता है। आगमकार उसे श्रुत स्थविर कहते हैं। जैन आगम-साहित्य में श्रुत स्थविर के लिए "ठाणं समवायधरे'' यह विशेषण आया है। इस विशेषण से स्पष्ट होता है कि इस आगम का आगमों में कितना अधिक महत्त्व है। व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक के पन्द्रहवें सूत्र में श्रुत स्थविर को श्रेष्ठ बताते हुए कहा गया है कि श्रुत स्थविर का आदर सत्कार करना चाहिए। उनके आने पर खड़े होना चाहिए तथा वन्दन आदि के साथ उनका विनय करना चाहिए। वहाँ यह भी कहा गया है कि जो स्थानांग और समवायांग का अध्ययन करने वाला दीक्षार्थी है, वह आचार्य, उपाध्याय, गणी, गणावच्छेदक, प्रवर्तक आदि पदवियों के योग्य होता है। शास्त्रकार की यह व्यवस्था स्थानांग सूत्र की महत्ता का निर्देश देती है।
व्यवहार सूत्र के अनुसार स्थानांग और समवायांग के ज्ञाता को आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इस विधान से इस अंग आगम की एक नवीन विशेषता हमारे सामने आती है।
स्थानांग सूत्र में चारों अनुयोगों का समावेश है। इसमें द्रव्यानुयोग की दृष्टि से ४२६ सूत्र हैं। इसी क्रम में श्रमण भगवान महावीर संबंधी घटनाएँ भी हैं उन्हें सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी कहा गया है। इसमें आगामी उत्सर्पिणी काल के भावी तीर्थकर महापद्म का चरित्र भी दिया गया है तथा भविष्य में होने वाली अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख है। इसके प्रथम अध्ययन में संग्रहनय की दृष्टि से विवेचन है। संग्रहनय में सम्पूर्ण पदार्थों का सामान्य रूप से ज्ञान कराया जाता है, इस दृष्टि को ध्यान में रखकर संख्याओं का स्थान के नाम से कथन किया गया है। आचार्य अभयदेव ने “स्थान'' को अध्ययन भी कहा
स्थानंग में विभिन्न कथाओं के संकेत एवं संक्षिप्त उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। जिनमें भरन चक्रवर्ती, गजसुकुमाल, सम्राट् सनत्कुमार और मरुदेवी की कथाओं का उल्लेख प्रमुख है। इसमें इसी तरह के विविध विषयों का
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
| 134
जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक संकलन है। प्रतिमा साधना की विशिष्ट पद्धति है। इसमें भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा, सर्वतोभद्रा और भद्रोतरा प्रतिमाओं का उल्लेख है। जाति, कुल, कर्म, शिल्प और लिंग के भेद से पांच प्रकार को आजीविका का वर्णन है। गंगा, यमुना, सरय, एरावती और माही नामक महानदियों आदि का उल्लेख है। चौबीस तीर्थकर में से वासुपूज्य, मल्ली. अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को कुमारावस्थ को प्रव्रज्या का भी उल्लेख है। इसमें रोगोत्पत्ति के नौ कारणों का उल्लेख है, जिनमें शारीरिक और मानसिक रोग प्रमुख हैं। राज्य व्यवस्था के संबंध में जानकारी उपलब्ध होती है। पुरुषादानोय पार्श्व, भगवान महावीर, श्रेणिक आदि के संबंध में भी ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
अत: यह आगम कई विशिष्ट अध्ययनों को प्रस्तुत करता है। इसमें अनेक आश्चर्यजनक घटनाएँ भी हैं, जिनका ज्ञानवाद की चर्चा में उल्लेख किया गया है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान की व्याख्या को प्रस्तुत करने वाला आगम है, जिससे दार्शनिक चिन्तन के लिए नई दिशा भी मिलती है। स्थानांग की प्राचीनता
इसमें भगवान महावीर के निर्वाण की प्रथम से छठी शताब्दी तक की अनेक घटनाएँ उल्लिखित हैं, जो ऐतिहासिक और पौराणिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। १. नवम स्थान में गोदासगण, उत्तरबलिस्सहमण, उद्देहगण, चारण गण, उडुवातितगण, विस्सवातितगण, कामढिगण, माणवगण और कोडिनगण इन गणों की उत्पत्ति का उल्लेख है जो कल्पसूत्र में भी है। इन गणों की चार-चार शाखाएँ है। इन गणों के अनेक कुल थे। ये सभी गण श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् दो सौ से पांच
सौ वर्ष की अवधि तक उत्पन्न हुए थे। २. इसी तरह सातवें स्थान में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र,
गंग, रोहगुप्त, गोष्ठामाहिल, इन सान निह्नवों का वर्णन है। इन सात निह्नवों में से दो निह्नव भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद हुए। इनका अस्तित्वकाल भगवान महावीर के केवलज्ञान-प्राप्ति के चौदह वर्ष बाद से निर्वाण के पांच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् तक का है। अर्थात् वे निर्वाण की प्रथम शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी के मध्य में हुए।
स्थानांग को यह ऐतिहासिक एवं पौराणिक सामग्री प्राचीनता की द्योतक है। इसके विवेच्य विषय जीव, अजीवादि तत्त्वों का विवेचन तथा दार्शनिक विश्लेषण भी इस बात के प्रमाण हैं कि स्थानांग सभी प्रकार की सामग्री को समाविष्ट किए हुए है। समवायांग, व्याख्या प्रज्ञप्ति आदि आगमें में प्रश्नोचर शैली से भेट प्रभेट आदि का कथन किया गया है परन्तु
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
| स्थानांग सूत्र का महत्व एवं विषय वस्तु
1351 स्थानांग में भेद-प्रभेद मूलक प्रस्तुतीकरण में ऐसा नहीं है।
स्थानांग सूत्र में प्रतिपादित विषय एक से दस तक की संख्या में निबद्ध हैं। इसके दश अध्ययनों का एक ही श्रुत स्कन्ध है। प्रथम अध्ययन उद्देशक रहित है। द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्ययनों के एक-एक उद्देशक हैं। इस प्रकार स्थानाग सूत्र दश अध्ययनों और इक्कीस उद्देशकों में विभक्त है। संक्षेप में स्थानांग का विषय सूची इस प्रकार हैस्थानांग में वर्णित विषय
०१ स्वसिद्धान्त, परसिद्धान्त और स्व-पर सिद्धान्त का वर्णन । ०२. जीव, अजीव और जीवाजीव का कथन। ०३. लोक, अलोक और लोकालोक का कथन । ०४. द्रव्य के गुण और विभिन्न क्षेत्रकालवर्ती पर्यायों पर चिन्तन। ०५. पर्वत, पानी, समुद्र, देव, देवों के प्रकार पुरुषों के विभिन्न प्रकार,
स्वरूप, गोत्र, नदियों, निधियों और ज्योतिष्क देवों की विविध
गनियों का वर्णन। ०६. एक प्रकार, दो प्रकार, यावत् दस प्रकार के लोक में रहने वाले ___ जीवों और पुद्गलों का निरूपण। ०७. ऐतिहासिक एवं पौराणिक विवेचन। ०८. विविध नामावलियाँ।
५. कर्म सिद्धान्त की सार्थकता। १०. नय, स्यावाट, निशेष दृष्टि।
११. एक ही विषय का दृष्टान्त रूप में प्रस्तुतीकरण (1) प्रथम स्थान
इसमें प्रत्येक वस्तु का कथन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दार्शनिक आधारों पर किया गया है। इसमें मूलत: नय दृष्टि और निक्षेप दृष्टि का समावेश है। नय में भी इस स्थान में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय है। इसमें अनेक विषयों के चार-चार पद गिनाये गए हैं। इसके प्रथम स्थान में अस्तित्त्व सूत्र, प्रकीर्णक सूत्र, पुद्गल सूत्र आदि के माध्यम से अठारह तथ्यों का उल्लेख है। 'एगे आया—एगे मणे, एगा वाई आदि वाक्यों के माध्यम से एक संख्या से विविध तथ्यों का विवेचन किया गया है। इसके सिद्धपद में तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध, तीर्थकर सिद्ध, स्वयंसिद्ध, प्रत्येकबुद्धसिद्ध इत्यादि की एक-एक वर्गणाएँ कही गई है। (2) द्वितीय स्थान
द्वितीय स्थान में चार उद्देशक हैं। इसमें व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य, वस्तु या पदार्थ आदि के दो-दो भेद प्रतिपादित किए गए हैं। प्रथम उद्देशक- द्वितीय स्थान के प्रथम उद्देशक में द्विपदावतारपद. क्रियापद,
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
106.".
[136.........: जिनवाणी-- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क गर्हापद, प्रत्याख्यान पद आदि २३ विषयों का उल्लेख है। जीव और अजीव, त्रस और स्थावर, सयोनिक और अयोनिक, आयु सहित और आयु रहित, इन्द्रिय सहित और इन्द्रिय रहित, वेद सहित और वेद रहित, आस्रव
और संवर, वेदना और निर्जरा आदि का वर्णन है और ये द्विपदावतार पद कहलाते हैं। इसी तरह इसमें दो क्रिया, दो विद्या चरण आदि पदों के आधार पर जीवों के विविध स्थानों की व्याख्या की गई है। द्रव्य दो प्रकार के कहे गए हैं.. १. परिणत और २. अपरिणत।। द्वितीय उद्देशक-इसमें वेदना, गति, आगति, दण्डक--मार्गणा, अवधिज्ञान–दर्शन, देशत:-सर्वत: श्रवणादि, शरीर आदि का उल्लेख है। गति-आगति पद में कहा है- नारक जीव दो गति और दो आगति वाले कहे गए हैं। नैरयिक (बद्ध नरकायुष्क) जीव मनुष्य से अथवा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में से (जाकर) उत्पन्न होता है। इसी प्रकार नारकी जीव नारक अवस्था को छोड़कर मनुष्य अथवा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनि में उत्पन्न होता
तृतीय उद्देशक-इसमें शरीर-पद, पुद्गल-पद, इन्द्रिय-विषय-पद, आचार-पद, प्रतिमा--पद आदि ३४ पदों का उल्लेख है। प्रस्तुत उद्देशक के आचार पद में आचार दो प्रकार का कहा गया है -१. ज्ञानाचार और २. नो ज्ञानाचार। १. दर्शनाचार और २. नो दर्शनाचार। १. चारित्राचार और २. नो चारित्राचार । १. तप आचार और २. वीर्याचार।" चतुर्थ उद्देशक- इसमें जीवाजीव पद, कर्म पद, आत्मनिर्माण पद आदि २१ पदों का वर्णन है। बन्ध के प्रेयोबन्ध और द्वेषबन्ध ये दो भेद किए हैं। जीव दो स्थानों से पापकर्म का बन्ध करते हैं राग से ओर द्वेष से। जीव दो स्थानों से पापकर्म की उदीरणा करते हैं- आभ्युपगमिकी वेदना से और औपक्रमिकी वेदना से। जीव दो स्थानों से पाप कर्म की निर्जरा करते हैंआभ्युपगमिकीवेदना से और औपक्रमिकी वेदना से। (3) तृतीय स्थान
प्रस्तुत स्थान के चार उद्देशक हैं, जिनमें तीन-तीन की संख्या से संबद्ध विषयों का निरूपण किया गया है। प्रथम उद्देशक- इसमें इन्द्र पद, विक्रिया पद, संचित पद आदि के ४८ सूत्र हैं। इन्द्र पद में इन्द्र तीन प्रकार के कहे गए हैं- १. नाम इन्द्र २. स्थापना इन्द्र ३. द्रव्य इन्द्र। इसी प्रकार १. ज्ञान इन्द्र २. दर्शन इन्द्र और ३. चारित्र इन्द्र ये तीन भी इन्द्र के भेद हैं। इस तरह इन्द्र के भेद-प्रभेद आदि का विस्तार से वर्णन है। इसमें परिचारणा, योग, करण आदि के भेदों का भी उल्लेख है। द्वितीय उद्देशक- इसमें लोक सूत्र, परिषद् सूत्र, याम सूत्र, वय: सूत्र आदि २० सूत्रों का वर्णन किया गया है। इसके बोधि सूत्र में बोधि के तीन भेट किए
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानांग सूत्र का महत्व एवं विषय वस्तु
137
गए हैं-- १. ज्ञान बोधि २. दर्शन बोधि और ३. चारित्र बोधि । इसी में तीन प्रकार के बुद्ध ? ज्ञान बुद्ध २ दर्शन बुद्ध और ३ चारित्र बुद्ध का प्रतिपादन किया गया है।
3
तृतीय उद्देशक- इसमें आलोचना सूत्र श्रुतधर सूत्र उपधि सूत्र, आत्मग्क्षसूत्र आदि ३५ सूत्रों का उल्लेख है। प्रस्तुत उद्देशक के श्रुतधर सूत्र में सूत्रकार बताते हैं कि- श्रुतधर १ सूत्रभर २ अर्धवर और ३ तदुभयधर नाम वाले हैं।
चतुर्थ उद्देशक- इसमें प्रतिमा सूत्र, काल सूत्र वचनसूत्र, विशोधि सूत्र आदि ४७ सूत्रों का वर्णन है। प्रस्तुत सूत्र में वचन तीन प्रकार के कहे गए हैं १. एकवचन २. द्विवचन और ३ बहुवचन । १. स्त्रीवचन २. पुरुष वचन और नपुंसक बचन । १. अतीत वचन २ प्रत्युत्पन्न वचन और ३ अनागत वचन।" इस तरह लिंग (व्यक्ति), काल और रचना की अपेक्षा से विषय का विभाजन किया गया है।
(4) चतुर्थ स्थान
प्रस्तुत स्थान में चार की संख्या से संबंध रखने वाले अनेक विषय संकलित हैं। प्रस्तुत स्थान में सैद्धान्तिक, भौगोलिक, प्राकृतिक आदि अनेक विषयों के स्थानों का वर्णन है। चतुर्थ स्थान में चार उद्देशक हैं।
प्रथम उद्देशक - इसमें अन्तक्रिया सूत्र, उन्नत प्रणत सूत्र, भाषा सूत्र सुत सूत्र आदि ४८ सूत्रों का वर्णन है। सुत सूत्र में सुत के भेदों का उल्लेख है, जिसे निशेष दृष्टि से इस प्रकार प्रतिपादित किया हैं-- १. कोई सुत अतिजात-पिता से अधिक समृद्ध और श्रेष्ठ होता है । २. कोई सुत अनुजात- पिता के समान समृद्धि वाला होता है । ३. कोई सुत अपजातपिता से हीन समृद्धि वाला होता है। ४. कोई सुन कुलाङ्गार - कुल में अंगार के समान कुल को दूषित करने वाला होता है। "
द्वितीय उद्देशक- इसमें प्रतिसंलीन-अप्रतिसंलीन सूत्र, दीण-अदीण सूत्र आदि ४८ सूत्रों का वर्णन है। प्रस्तुत सूत्र के लोकरिथति सूत्र में सूत्रकार ने लोकस्थिति इस प्रकार की कही है- १. वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है । २. घनोदधि वायु पर प्रतिष्ठित है । २. पृथ्वी घनोदधि पर प्रतिष्ठित है । ४. त्रस और स्थावर जीव पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हैं।
तृतीय उद्देशक- इसमें क्रोध सूत्र भाव सूत्र, उपकार सूत्र, आश्वास सूत्र आदि ६३ सूत्रों का वर्णन है। लेश्या सूत्र का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने असुरकुमारों की चार लेश्याओं का कथन इस प्रकार किया है-- १. कृष्ण लेश्या २. नील लेश्या ३. कापोत लेश्या और ४. तेजो लेश्या इसी प्रकार पृथ्वीकायिक अपकायिक, वनस्पतिकायिक जीवों, वाणव्यन्तर देवों और असुरकुगारों की लेश्याओं का विवेचन किया गया है।"
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
[138
जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक चतुर्थ उद्देशक-इसमें प्रसर्पक सूत्र, आहार सूत्र, वणकर सूत्र, काम सूत्र
आदि ५६ सूत्रों का वर्णन है। प्रस्तुत उद्देशक के वृक्ष विक्रिया सूत्र में वृक्षों की विकरण रूप विक्रिया चार प्रकार की कही गयी हैं। जैसे-. १. प्रवाल (कोंपल) के रूप में २. पत्र के रूप में ३. पुष्प के रूप में और '४. फल के रूप में। (5) पंचम स्थान
इसमें पाँच की संख्या से संबंधित विषयों का समावेश है, जिनमें सैद्धान्तिक, तात्त्विक, दार्शनिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष्क, योग आदि अनेक विषयों का वर्णन है।" पंचम स्थान के तीन उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक- इसमें महाव्रत, अणुव्रत, इन्द्रिय विषय, प्रतिमा, देव आदि ३० विषयों का वर्णन है। प्रस्तुत सूत्र में राजचिह्न सूत्र पाँच प्रकार के कहे गये हैं जैसे- १. खड्ग २. छत्र ३. उष्णीष ४. उपानह और ५ . बाल व्यजन।" द्वितीय उद्देशक-इसमें महानदी, उत्तरण सूत्र, वर्षावास सूत्र, व्यवहार सूत्र, परिज्ञा सूत्र आदि ३४ सूत्रों का वर्णन है। प्रस्तुत उद्देशक के परिज्ञा सूत्र में परिज्ञा पांच प्रकार की कही गयी है जैसे- १. उपधि परिज्ञा २. उपाश्रय परिज्ञा ३. कषाय परिज्ञा ४. योग परिज्ञा और ५. भक्त पान परिज्ञा।" तृतीय उद्देशक-इसमें अस्तिकाय सूत्र, गीत सूत्र, इन्द्रियार्थ सूत्र. मुंड आदि ४० स्थानों का वर्णन है। प्रस्तुत उद्देशक के गति सूत्र में गतियों के प्रकारों का उल्लेख है- १. नरक गति २. तिर्यंच गति ३. मनुष्य गति ४. देव गति और ५. सिद्ध गति (6) षष्ठ स्थान
__ इसमें छह - छह संख्या से निबद्ध अनेक विषय संकलित हैं। प्रस्तुत स्थान में एक उद्देशक है। साधु-साध्वियों की समाचारी के लिये यह स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसमें उनको चर्याओं का विस्तार से वर्णन है। साथ ही इसमें सैद्धान्तिक, ऐतिहासिक, ज्योतिष्क, भौगोलिक, आयुर्वेद, विवाद पद आदि अनेक स्थानों की जानकारी भी दी गई है। प्रस्तुत स्थान में ६६ स्थानों/विषयों का उल्लेख है। जिनमें गण-धारण-सूत्र, निर्ग्रन्थी अवलम्बन सूत्र, गति-आगति सूत्र भी है। इसी के असंभव सूत्र में बताया गया है कि सभी जीवों में छह कार्य करने की न ऋद्धि, न द्युति, न यश, न बल, न वीर्य, न पुरस्कार और न ही पराक्रम है, जैसे- १. जीव को अजीव करना २. अजीव को जीव करना ३. एक समय में दो भाषा बोलना ४. स्वयंकृत कर्म को वेदन करना या वेदन नहीं करना, ५ . पुद्गल परमाणु का छेदन या भेदन करना या अग्निकाय में जलाना और ६. लोकान्त से बाहर जाना।" (7) सप्तम स्थान
प्रस्तुत सप्तम स्थान में सान की संख्या से संबद्ध विषयों का संकलन
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थानांग सूत्र का महत्त्व एवं विषय वस्तु
1991 किया गया है। सात संख्या वाले अनेक दार्शनिक, भौगोलिक, ज्योतिष्क, ऐतिहासिक, पौराणिक आदि विषयों का वर्णन है। एक उद्देशक है। प्रस्तुत स्थान में ही जीव विज्ञान, लोक स्थिति संस्थान, गोत्र, नय, आसन, पर्वत, धान्य स्थिति, सात प्रवचन निव, सात समुद्घात आदि विविध विषयों का संकलन है। इसके सप्त स्वरों के वर्णन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में संगीत विज्ञान का कितना महत्व था। इसमें श्रेष्ठता के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन किया है। राजाओं में चक्रवर्ती राजा श्रेष्ठ होता है। रत्नों में होरक्त, संघ में आचार्य और उपाध्याय का प्रमुख स्थान होता है। प्रस्तुत स्थान में गणापक्रमण सूत्र, विभंग ज्ञान सूत्र, संग्रह स्थान सूत्र, असंग्रह स्थान सूत्र आदि ४७ स्थानों का वर्णन है। इसी में बादरवायुकायिक सूत्र में बादर वायुकायिक जीवों का वर्णन है— १. पूर्व दिशा संबंधी वायु २. पश्चिम दिशा सम्बन्धी वायु. ३. दक्षिण दिशा सम्बन्धी वायु ४. उत्तर दिशा संबंधी वायु ५. ऊर्ध्व दिशा सम्बन्धी वायु ६. अधोदिशा सम्बन्धी वायु और ७. विदिशा सम्बन्धी वायु जीव।" (8) अष्टम स्थान
आठवें स्थान में आठ की संख्या से संबंधित विषयों का संकलन किया गया है। प्रस्तुत स्थान में भी एक उद्देशक है। इसमें एकलविहार प्रतिमा सूत्र, योनि संग्रह सूत्र, गति-अगति सूत्र. कर्म बन्ध सूत्र , दर्शनसूत्र आदि ६१ स्थानों का वर्णन है। प्रस्तुत उद्देशक के महानिधि सूत्र में बताया गया है कि चक्रवर्ती की प्रत्येक महानिधि आठ-आठ पहियों पर आधारित है। आठ-आठ योजन ऊंची कही गयी है। (9) नवम स्थान
इसमें नौ-नौ की संख्याओं से संबंधित विषयों का संकलन है। प्रस्तुत स्थान में एक उद्देशक है। विसंभोग सूत्र, जीव सूत्र, गण सूत्र, कूट सूत्र आदि ४१ स्थानों का वर्णन है। प्रस्तुत स्थान के संसार सूत्र में बनाया गया है कि जीव नौ स्थानों से (नौ पर्यायों में) संसार परिभ्रमण करते हैं, कर रहे हैं,
और आगे करेंगे। जैसे १.पृथ्वीकायिक रूप से २. अप्कायिक रूप से ३. तैजसकायिक रूप से ४. वायुकायिक रूप से ५. वनस्पतिकायिक रूप से ६. द्वीन्द्रिय रूप से :७. त्रीन्द्रिय रूप से ८. चतुरिन्द्रिय रूप से ९. पंचेन्द्रिय रूण से। (10) दशम स्थान
- इसमें दस की संख्या से संबंधित विविध विषयों का वर्णन है। लोकस्थिति, इन्द्रियों के विषय, पुद्गल और क्रोध की उत्पत्ति का विस्तार से विवेचन है। स्वाध्याय काल, धर्म पद, स्थविरों के भेद, भगवान महावीर के स्वप्न आदि का विवेचन भी है। दशम स्थान उद्देशक रहित है। इसमें लोक
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
140
जिनवाणी- जैनागम - साहित्य विशेषाङ्क स्थिति सूत्र, इन्द्रियार्थ सूत्र, क्रोधोत्पत्ति स्थान सूत्र आदि ९३ सूत्रों का उल्लेख है । प्रस्तुत स्थान में श्रमण धर्म सूत्र में श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है जैसे- १. क्षान्ति (क्षमा धारण करना) २ मुक्ति (लोभ नहीं करना) ३. आर्जव (मायाचार नहीं करना) ४. मार्दव (अहंकार नहीं करना) ६. सत्य (सत्य वचन बोलना) ७ संयम धारण ८ तपश्चरण ९ त्याग (सांभोगिक साधुओं को भोजनादि देना) १०. ब्रह्मचर्यवास (ब्रह्मचर्य पूर्वक गुरुजनों के पास रहना) ।
इस तरह स्थानांग सूत्र में चारों अनुयोगों का समावेश है। मुनि कन्हैयालाल 'कमल' ने अपनी आगमिक दृष्टि से कहा है- स्थानांग में द्रव्यानुयोग के ४२६ सूत्र, चरणानुयोग के २१४, गणितानुयोग के १०९ और धर्मकथानुयोग के ५९ सूत्र हैं। इसकी विषय वस्तु के उक्त विवरण में संस्कृति के सभी तथ्यों का समावेश हो गया है। यह ऐसा आगम है जिसमें सिद्धान्त, दर्शन, नीति, न्याय आदि के स्थानों पर संख्या की दृष्टि से विवेचन किया गया है। यह कोई कथाग्रन्थ नहीं है और न ही सैद्धान्तिक, दार्शनिक आदि विषयों की विस्तृत विवेचना करने वाला आगम है। फिर भी विषय वर्गीकरण की दृष्टि से यह अंग आगम एक विश्वकोष हैं। इसमें दस स्थान अध्यायों के प्रतीक हैं।
संदर्भ
०१. नन्दीसूत्र सूत्र ८२ "ठाणेणं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्ढीए दसढाणगविवढियाणं भावाणं परूवणा आधविज्जति ।"
०२ कसायपाहुड : 1/123 "ठाणं णाम जीवपुग्गलादीणामेगादि एगुत्तरकमे गठाणाणि वण्णेदि ।"
०३. नदीसूत्रचूर्ण: पृ. ६४ "ठाविज्जति त्ति स्वरूपतः स्थाप्यते प्रज्ञाप्यंत इत्यर्थः ।" ०४. कसायपाहुड : १/११३/६४-६५
"एक्को चेच महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिओ । चतुसंकमणाजुतो पंचग्गुणप्पहाणो थे ।। छक्कायक्कमजुतो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो । अट्ठासवो वट्ठो जीवो दसट्टाणिओ भणिओ" ।।
०५. आगम साहित्य मनन और मीमांसा पृ. ९६
:
०६. व्यवहार सूत्र : पृ. ४४९, "तओ थेरभूमिओ पण्णत्ताओ, तं जहा जाइथेरे सुयथेरे, परियायथे रे । सठिवासजाए समणे णिग्गंथे जाइथेरे ठाणांग- समवायांगधरे समणे णिग्गंथे सुयथेरे । वीसवासपरियाए समणे णिग्गंथे परियायथेरे।"
०७. व्यवहार सूत्र : ३/३/६८ "ठाणसमवायधरे कप्पई आयरित्ताए उवज्झायत्ताए गणवच्छे इयत्ताए उद्दिसित्तए"
०८. (क) स्थानांगवृनि : पत्र ३ (ख) तत्र च दशाध्ययनानि"
०९. स्थानांग १/२
१०. वही : १/ २१४, “एगा तित्थसिद्धाणं वग्गणा एवं जाव ।" १५. वही २४१ "जीवच्चेन, अजीवच्चेव, तसच्चेव, थावरच्चेव ।" १२ वही : २४४४३ "परिणया चेव, अपरिणया चेन ।"
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________ | स्थानांग सूत्र का महत्व एवं विषय वस्तु ..................14 13. वही: 2/2/48 "णेरइया दुगतिया दुयागतिया पण्णत्ता / " 24. स्थानाग : 2/2/173 15. स्थानांग: 2/3/239 16. वही : 2/3/397 17. स्थानगः३/१/२ 18. वही : 3/2/178 “णाणबोधी, दंसणबोधी, चरित्तबोधी।" 19. वही:३/३/३४४ 20. वही:३/४/४२६ 21. स्थानांग: 4134 22. वहीं: 4/2/259 23 स्थानांग: 4/3/369, "कण्हलेसा, गील लेसा, काउलेसा. ते उलेसा" 24. वहीं: 4/4/529, "पवालताए, पतताए. पुष्फताए. फलताए" 26. वही:५/पृ.४४७ 26. वहीं: 5/1/72, “खग्ग, छत्तं, उप्फोसं. पाणहाओ, बालवीअणे" 27. वही:५/२/१२३ 28. स्थानांग: 5.3/175 25. वही:६/५.५ 30. स्थानांग: 7/25 31. वही:८/१:१६ 32. स्थानांग 2012 33. वही: 10/18 -4/1, ओ. टी. एस. क्वार्टर, जवाहरलाल नेहरू मार्ग, जयपुर (राज.)