Book Title: Sthanang Sutra Ppart 02
Author(s): Devchandra Maharaj
Publisher: Mundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir KX श्रीस्थानाङ्गमूत्र सानुवाद ॥३३३॥ XXXXXXXXXXXXXXXXXKKKKKXXX एम जणाय छे. अथवा एक स्थले उत्पन्न थईने त्यांथी अल्पकर्मवाळो थयो थको जे पाछो (मनुष्य भवमां) आवेल ते अल्पकर्म- ४ स्थानप्रत्यायात अर्थात् लघु कर्मपणाए उत्पन्न थयो एवो अर्थ छे. आगळ कहेवामां आवनार महाकर्मनी अपेक्षाए मलमा जे 'च'कार 1४ काध्ययने छे ते समुच्चयना अर्थवाळो छ, 'अपि' संभावनाना अर्थमां छे. आ पक्षनी पण संभावना कराय छे, भवति-होय, से-आ अने 'ण' |x उद्देशः १ वाक्यांलकारमा छे. द्रव्यथी शिरर्नु हुँचन करवावडे अने भावथी रागादिने दूर करवाथी मुंड थईने, अगार-द्रव्यतः घरथी अने अन्तक्रिया: भावतः संसारमा आनंद माननार जीवोना निवासभूत अविवेकरूप घरथी नीकळीने, ए प्रमाणे अर्थ समजवो. अनगारिता-अगारी सू० २३५ असंयत गृहस्थ, तेनो निषेध करवाथी अनगारी-संयत, तेनो भाव ते अनगारिता अर्थात साधपणाने, प्रवजित-प्राप्त थयो अथवा विभक्तिना परिणाम( बदलवा )थी अनगारीपणाए-निग्रथपणाए प्रव्रज्याने पामेल, ते केवो छ ? 'संजयबहुले'त्ति. पृथ्वी विगेरेना संरक्षणरूप संयमवडे जे बहुल-अधिक ते संयमबहुल अथवा संयम छ विशेष जेने ते. एवी रीते संवरबहुल पण समजवु. विशेष ए के-आश्रवनो जे निरोध ते संवर, अथवा इंद्रिय अने कषायनो निग्रह विगेरे भेद, अहिं संवरबहुलनुं ग्रहण करेलुं छे ते प्राणातिपात( हिंसा )नी विरतिर्नु प्राधान्य जाणवा माटे ज. कडुं छे केएक चिय एत्थ वयं, निद्दिष्टुं जिणवरेहिं सव्वेहि। पाणाइवायविरमण-मवसेसा तस्स रक्खा ॥१॥ प्राणातिपातविरमणरूप एक ज व्रत समस्त जिनवरोए कहेलुं छे, बाकीना मृषावादविरमण विगेरे व्रतो तेनी रक्षा माटे छे. आ बीजु विशेषण पण रागादिना उपशमयुक्त चित्तनी वृत्तिथी थाय छे, आ कारणथी ज कहे छे-समाधिबहुल, समाधि X॥३३३॥ KXXXXXXXXX XXXRA For Private and Personal Use Only

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