Book Title: Sramana 2011 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 10
________________ viii : श्रमण, वर्ष ६२, अंक १ / जनवरी-मार्च - २०११ उसे लोकविज्ञान से क्या लेना देना? श्री आकलैंड का मानना है कि लोकविज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी जैन अध्ययन में उपेक्षा की गयी है जबकि यह मोक्षमार्ग, संस्कारित जीवन तथा धार्मिक संगठन से सीधा जुड़ा हुआ है और जैन धर्मदर्शन को उसके मूल रूप में समझने के लिये लोकविज्ञान का ज्ञान परम आवश्यक है। लेखक ने त्रिलोक में केवल मध्यलोक जहां मनुष्य रहते हैं, को अपने लेख का विषय बनाया है। लोक विज्ञान के सामान्य स्वरूप और आकार को प्रमुखता न देते हुए श्री आकलैंड ने केवल उन्हीं विन्दुओं पर प्रमुखता से विचार किया है जो जैन धार्मिक जीवन जीने के मुख्य आधार हैं। मध्य लोक में असंख्य द्वीप हैं जो जम्बूद्वीप के चारों ओर स्थित हैं। मोक्षार्थी को जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मोक्ष की प्राप्ति लगभग ८१५०० वर्ष (आगामी उत्सर्पिणी काल के तृतीय काल) से पहले सम्भव नहीं है जबकि विदेह क्षेत्र में यह सर्वदा सुलभ है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालचक्र का सविस्तार वर्णन करते हुए लेखक ने बताया है कि महावीर की मृत्यु के बाद पांचवां आरा प्रारम्भ हुआ जिसमें इस संसारावस्था से मोक्ष सम्भव नहीं है। सामयिक सन्दर्भ में लोकविज्ञान की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए लेखक ने बताया है कि आज अधिकांश जैन उच्चशिक्षा प्राप्त हैं अतः वे यह जानना चाहते हैं कि लोकविज्ञान रूप जैन - सिद्धान्त हमारी वैज्ञानिक मान्यताओं से कहां तक साम्य और वैषम्य रखते हैं। वह इसलिये भी कि बाह्य जगत् विज्ञान का विषय है। अपने कथन के समर्थन में श्री आकलैंड ने जैन धर्म की एक समणी जो साधना अंगीकार करने से पहले बायोसाइंस में डिग्री ले चुकी हैं के कथन का उल्लेख किया है 'एक तरफ जिनेन्द्रदेव के सत् वचन हैं जिन्हें सत्यापित करने के साधन हमारे पास नहीं हैं, दूसरी और विज्ञान और तकनीकी हैं जो विश्व की व्याख्या अपने तरीके से करते हैं और उनकी स्थापनाओं को सत्यापित किया जा सकता है। फिर भी वर्तमान विज्ञान पूर्ण नहीं है क्योंकि पूर्ण तो केवल जिन ही हो सकते हैं, इसलिये जिनेन्द्रदेव के वचनों पर श्रद्धा रखनी चाहिये । विज्ञान ने अभी लोकविज्ञान के बहुत कम अंश को जाना है। ब्रह्माण्ड अनन्त है जो भौतिक विज्ञान की पहुंच से बहुत दूर है। २. काल का स्वरूप और परिवर्तन के साथ उसके सम्बन्ध श्रीमती एना बोलेक्वा ने काल और परिवर्तन के साथ उसके सम्बंधों को कुन्दकुन्द दर्शन के विशेष सन्दर्भ में व्याख्यायित किया है। जैन दर्शन की मान्यता है कि सभी द्रव्य परिवर्तन के विषय हैं और काल उसमें कारण है। यहां तक कि काल द्रव्य में भी परिवर्तन होता है। काल के सन्दर्भ में जैन दर्शन की यह मान्यता समस्त भारतीय दर्शन में अनूठी है । कुन्दकुन्द सत् को 'भंगोत्पादध्रौव्यात्मक' मानते हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में दिगम्बर सम्प्रदाय काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मानता है जबकि श्वेताम्बर इस सन्दर्भ में विभाजित से दिखते हैं। कुन्दकुन्द के

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