Book Title: Sramana 1999 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 14
________________ विशेषता है। जैसे सार अलंकार की परिभाषा देखिये- 'सारः प्रकर्षस्तूत्तरोत्तरम्' (पृष्ठ ३०६)। उदाहरण राज्ये सारं वसुधा वसुन्धरायां पुरं पुरे सौधम्। अजतिसहसस्रचतुष्टयमनुष्टुभामुपरि पंच शती।। - अलंकारमहोदधि, श्लोक ११, पृष्ठ ३४०. 'सौधे तल्पं तल्पे वारांगनाऽनंगसर्वस्वम्।' (पृष्ठ ३०६)। अलंकारों के अवान्तर भेद भी प्रस्तुत ग्रन्थ में काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण आदि ग्रन्थों से अधिक किये गये हैं। नाट्यदर्पण- नाट्यदर्पण आचार्य रामचन्द्र और गुणचन्द्र, दो विद्वानों की कृति है। ये दोनों आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य थे, अत: इनका समय भी वही है, जो हेमचन्द्र का है। रामचन्द्र और गुणचन्द्र अपने गुरु के समान बहुश्रुत विद्वान् थे। इन्होंने लगभग सौ ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से चार-पाँच प्रकाशित भी हो चुके हैं। नाट्यदर्पण उन्हीं में से एक है। नाट्यदर्पण चार विवेकों में विभक्त है। मूल कारिकाएँ क्रमश: चारों विवेकों में ६५, ३७, ५१ और ५४ --- कुल २०७ हैं और इन पर स्वयं रामचन्द्र और गुणचन्द्र ने विस्तृत विवरण लिखा है, जो ४५०० अनुष्टुप छन्द प्रमाण है। विवरण में विषय की विशेष पुष्टि के लिये जैन व जैनेतर ग्रन्थों के उदाहरण दिये गये हैं। भरत ने विस्तृत नाट्यशास्त्र रचा था। उनके बाद संक्षेप में नाट्यतत्त्वों का स्वरूप निरूपण करने वाले मुख्य दो ग्रन्थ हैं- (१) प्रस्तुत नाट्यदर्पण और (२) दशरूपक। दोनों ग्रन्थों का प्रतिपाद्य विषय एक ही है, किन्तु रामचन्द्र और गुणचन्द्र ये दोनों नाटकीय तत्त्व के मर्मज्ञ थे। इन्होंने अनेक ऐसे ग्रन्थों के उदाहरण दिये हैं, जो आज अनुपलब्ध है। कहीं-कहीं दोनों ग्रन्थों में मौलिक अन्तर भी हैं। दशरूपककार नाटकों में शान्त रस नहीं मानते, नाट्यदर्पणकार मानते हैं। दशरूपक में व्यञ्जनावृत्ति का खण्डन है, नाट्यदर्पण में नहीं है। नाट्यदर्पण में रस को सुख-दुःखात्मक बतलाया गया है- 'सुख दुःखात्मको रसः', पृष्ठ १४१। शृङ्गार, हास्य, वीर, अद्भुत और शान्त इन पाँचों को सुखात्मक और करुण, रौद्र, वीभत्स तथा भयानक इन चारों को दुःखात्मक बतलाया है। दशरूपक में रूपकों की संख्या दस स्वीकार की है, जबकि नाट्यदर्पण में बारह । अलंकारचिन्तामणि- इसके रचयिता आचार्य अजितसेन हैं। इनका समय चौदहवीं शती है। इन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन-ग्रन्थों के ही उदाहरण दिये हैं। जैनेतर ग्रन्थों के भी उदाहरण हैं, किन्तु ऐसे उदाहरणों की संख्या बहुत ही कम है। अर्हद्दास के मुनिसुव्रतकाव्य के भी कुछ उदाहरण प्रस्तुत ग्रन्थ में हैं, अत: प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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