________________
श्रमण : अतीत के झरोखे में श्री जिनमन्दिरादि-लेखसंग्रह, लेखक, आचार्य विजयसुशीलसूरि जी म० सा०, सम्पादक - मुनि रविचन्द विजय जी म०, प्रकाशक- श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति C/o श्री गुणदयाल चन्द जी भंडारी, राई का बाग, पुरानी पुलिस लाइन के पास, जोधपुर, पृष्ठ १२+१४८+५५, मूल्य ५.००, प्रकाशन वर्ष १९९७ ई० स० ।
इस लघु पुस्तक के लेखक आचार्य श्री विजयसुशीलसूरीश्वर जी महाराज इस युग के विशिष्ट विद्वानों में से हैं । उनके द्वारा १०८ पुस्तकें प्रणीत की गयी हैं । इस लघु पुस्तक में उनके द्वारा पूर्व में लिखे गये जिनमंदिर, जिनमुर्ति, जिनदर्शन, जिनपूजा, जिनभक्ति आदि लेखों का संग्रह है । उक्त लेखों को पुस्तकाकार रूप देने में मुनि रविचन्द विजय जी ने, जो इसके संपादक हैं, सफल प्रयास किया है । पुस्तक जैन उपासकों के लिये उपयोगी है।
सौभाग्य देशना - प्रवचनकार-मालवकेशरी श्री सौभाग्यमल जी म० सा० अनुवादक: सम्पादक-मुनि प्रकाश चन्द्र 'निर्भय', प्रकाशक : श्री धर्मदास जैन मित्र मंडल, ८०, नौलाईपुरा, रतलाम (मध्य प्रदेश) ४५६००१, पृष्ठ २०+११२, मूल्य : १०.००, प्रकाशक वर्ष १९९७ ई० स० ।
। प्रस्तुत पुस्तक मालव केशरी श्री सौभाग्यमल जी म० सा० के कछ विशिष्ट प्रवचनों का संग्रह है जो पूर्व में 'श्री सौभाग्यमल अमृत बिन्दु' के नाम से गुजराती भाषा में १९७६ ई० में प्रकाशित हुआ था। इसका हिन्दी अनुवाद स्वर्गीय मुनिश्री के अन्तेवासी श्री प्रकाशमुनि जी ने किया है । इस अनुवाद की विशेषता यह है कि इसमें प्रवचनकार के भावों की यथावत रखते हुए उनकी मौलिकता को अक्षुण रखा गया है । पुस्तक जन सामान्य के लिये अत्यन्त उपयोगी है । इसकी साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण निर्दोष
है।
श्री सौभाग्य की काव्य कथायें - रचियता- आचार्य श्री सौभाग्यमल जी महाराज, सम्पादक- मुनिश्री प्रकाशचन्द्र जी निर्भय; प्रकाशक- श्री धर्मदास जैन मित्र मण्डल, ८०, नौलाईपुरा, रतलाम, मध्यप्रदेश (४५६००१), प्रथम संस्करण १९९७ ई०, पृष्ठ २९+२१४, मूल्य : २५.०० ।
श्री धर्मदास जैन मित्र मंडल, रतलाम द्वारा गुरु श्री सौभाग्यमल जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके द्वारा रचित साहित्य के प्रकाशक की योजना को क्रियान्वित किया जा रहा है। प्रस्तुत पुस्तक उसी योजना की एक कड़ी के रूप में प्रकाशित हुआ है। इसमें विभिन्न पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों के माध्यम से नैतिक, सामाजिक और धार्मिक चेतना को जनसामान्य में जागृत करने के लिये पद्य रूप से कथायें दी गयी हैं । पूज्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org