Book Title: Sramana 1994 01 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 4
________________ जैनदर्शन : एक अनुचिन्तन संन्यास धर्म अर्थात परमहंस मार्ग का प्रर्वतक कहा जाता है। ऋषभदेव से पूर्व मानव समाज पूर्णतः प्रकृति पर आश्रित था। काल-क्रम में जब मनुष्यों की जनसंख्या में वृद्धि और प्राकृतिक संसाधन में कमी होने से मनुष्यों में संचय वृत्ति का विकास हुआ तो स्त्रियों, पशुओं और खाद्य पदार्थों को लेकर एक-दूसरे से छीना-झपटी होने लगी। ऐसी स्थिति में ऋषभदेव ने सर्वप्रथम समाज-व्यवस्था एवं शासन- व्यवस्था की नींव डाली तथा कृषि एवं शिल्प के द्वारा अपने ही श्रम से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना सिखाया। किन्तु मनुष्य की बढ़ती हुई भोगाकांक्षा एवं संचय वृत्ति के कारण वैयक्तिक जीवन एवं सामाजिक जीवन में जो अशांति एवं विषमता आयी उसका समाधान नहीं हो सका। भगवान ऋषभदेव ने यह अनुभव किया कि भोग सामग्री की प्रचुरता भी मनुष्य की आकांक्षा व तृष्णा को समाप्त करने में समर्थ नहीं है। यदि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में शांति एवं समता स्थापित करनी है, तो मनुष्य को त्याग एवं संयम के मार्ग की शिक्षा देनी होगी। उन्होंने स्वयं परिवार एवं राज्य का त्याग करके वैराग्य का मार्ग अपनाया और लोगों को त्याग एवं वैराग्य की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। बस यही जैनधर्म की उत्पत्ति की कहानी है। आगे चलकर ऋषभदेव की परम्परा में क्रमशः अन्य 23 तीर्थकर हुए। उनमें 22वें अरिष्टनेमि, 23वें पार्श्वनाथ एवं 24वें भगवान महावीर हुए। 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे और उन्होंने अहिंसा पर विशेष रूप से बल दिया। अपने विवाह के अवसर पर वैवाहिक भोज हेतु एकत्रित पशु-पक्षियों की चीत्कार सुनकर उन्होंने न केवल उन्हें मुक्त करवाया अपितु वैवाहिक जीवन से मुख मोड़कर तप-साधना का मार्ग अपनाया और ज्ञान प्राप्त किया तथा अहिंसा और संयम का उपदेश दिया। उन्होंने कहा -- "धम्मो मंगलमुक्किठें अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जे धम्मे सया मनो।।" अर्थात अहिंसा, संयम व तप रूपी धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है। जिसका मन सदैव इस धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ वाराणसी में उत्पन्न हुए थे, इन्होंने तप-साधना में जो आत्मपीडन एवं परपीडन की प्रवृत्ति विकसित हो रही थी, उसका विरोध किया। उन्होंने कहा कि ऐसा तप जिससे दूसरे प्राणियों को कष्ट होता हो और अपने तपस्वी होने के अहंकार की पुष्टि हो और जो लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये किया जाता हो, उचित नहीं है, तप का प्रयोजन तो आत्मशुद्धि होना चाहिये। अतः विवेकपूर्ण अर्हिसक तप ही श्रेष्ठ है। भगवान पार्श्वनाथ के बाद भगवान महावीर स्वामी हुए। महावीर ने इन्द्रिय संयम के साथ-साथ ब्रहमचर्य एवं अपरिग्रह की साधना पर अधिक बल दिया। उन्होंने पार्श्व के चार्तुयाम धर्म में ब्रह्मचर्य को जोड़कर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना का उपदेश दिया। महावीर स्वामी का विशेष बल आचार- शुद्धि और व्यवहार- शुद्धि पर था। उन्होंने कहा कि -- आचारो प्रथमोधर्मः अर्थात् आचार ही प्रथम धर्म है। व्यावहारिक जीवन हेतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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