Book Title: Sona aur Sugandh Author(s): Devendramuni Publisher: Tarak Guru Jain GranthalayPage 12
________________ नारी नहीं, नारायणी | ३ शरीर उन तप और अरस-विरस आहार से काफी क्षीण हो चुका था पर भावदेव के शरीर पर अभी भी जवानी चमक रही थी। उनके मन में विचार आया, कि मैं तो साधु बन गया हूँ पर मेरी पत्नी मेरे अभाव में छटपटा रही होगी। इसी उधेड़-बुन में उनके मन में तूफान पैदा हुआ और साधना को छोड़कर पुन: गृहस्थ बनने के लिए तत्पर हो गये; किन्तु दूसरे क्षण सोचा कि भाई के जीवित रहते गृहस्थ बनना श्रेयस्कर नहीं है । वेष साधु का था पर मन गृहस्थ का हो चुका था। मुनि भवदेव के स्वर्गस्थ होते ही वह प्रसन्नता से अपने गाँव की ओर चल पड़ा। चलते-चलते भावी जीवन की रंगीन कल्पना करने लगा किन्तु एक विचार मन में कौंध गया कि यदि माताजी जीवित होंगी तो मेरी दाल न गलेगी। मेरे सारे मनसूबे मन में ही रह जायेंगे। किन्तु फिर मन में विचार आया कि भाई जीवित नहीं रहा तो माँ किस प्रकार रही होगी। जब मैंने दीक्षा ली थी तब भी वह काफी वृद्ध थी अतः वह अवश्य ही स्वर्गस्थ हो चुकी होगी। भावदेव मुनि क्रमशः विहार करते हुए अपने गाँव पहँचे । गाँव के वाहर ही कुछ बहिने आवश्यक कार्य के लिए आई हुई थीं, उनमें नागला बहिन भी थी। मुनि को देखकर वह नमस्कार करने के लिए उनके पास पहुँचो। अकेली बहिन को देखकर भावदेव मुनि ने पूछा-बहिन ! क्या तुम इसी ग्राम में रहती हो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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