Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ .. धो. वशवाद काट देंटु भागव । रस भंग दंकक्षरसर्य। गन्धर्व, आदर्श. माहेश्वरी, दामा, बोलधो, इस प्रकार के विचित्र नामादि का रसभावगळनेल्लब कूडलु वंदु । वशवेळनूर हदिने'टु भाषे।। । उल्लेख कर विवेचन किया गया है। प्राचार्य कुमुदेन्दु ने अपने भूवलय में सात सौ ॥११-१७१।।। अठारह भाषामों में से निम्न भाषामों का उल्लेख किया है, कर्नाटक में प्राकृत, इस प्रकार ७१८ भाषाओं को गर्भित करके सरल तथा प्रौढ रीति से । संस्कृत, द्रविड, अन्ध्र, महाराष्ट्र मलयालम, गुर्जर, अंग, कलिग, काश्मीर कम्बोज, श्री कुमुदेन्दु पाचार्य ने इस विश्व काव्य की रचना को है। हमीर, शौरसेनी बाली, तिब्बति, व्यंग; बंग, ब्राह्मो, विजयाई, पद्म, वंदर्भ, इस तरह अपने काव्य अन्थ को सर्व भाषामय कर्नाटक भाषा में रचा है, वैशाली, सौराष्ट्र, खरोष्ट्री, निरोष्ट्र, अपभ्रशा, पैशाचिक, रक्ताक्षर, अरिष्ट, इसमें पुरातन और नूतन दोनों भाषाओं को गर्भित किया गया है। कुमुद- अर्धमागधी, (५-१०-२८-१०-५८) इनके अलावा और भी बतलाते हैंचन्द्राचार्य ने संयुक्त भाषा को इस तरह वितरण किया है कि संस्कृत, मागधी, पारस, पारस सारस्वत, वारस, बस, मानव, लाट, गौड, मागध, विहार पैशाची, सूरसेनी, विविध देशभेदवालो अपभ्रंग पांच नो, (५-१०-६-3-६) इन। उत्कल कान्यकुटज, वराह, वैगा , वेदान्त, चित्रकर और यक्ष राक्षस, हंस, भाषामों को तीन से गुणा करने पर अठारह होता है । भूत, ऊइया, यव, नानी तुर्की, मिल, संन्धव, माल परिणया, किरिय, देव नागरी, कर्नाटक, मागध, मालव, लाट, गौड, गुर्जर प्रत्येकत्र मित्यष्टादश, महा- । लाड, पाशी अमित्रिक, चारिणक्य, मूलदेवी इत्यादि (५-२८-१२०) इस प्रकार भाषा (५-९-७-६-८) इस प्रकार उल्लेख किया गया है । । आने वाली भाषा लिपियों को इस नबमांक समश नामक कोष्टक को एक ही सर्व भाषामयो भाषा विश्व विद्यावऽभासने । अंक लिपि में ही बांधकर उन सम्पूर्ण भाषानों को इस कोष्टक रूप बंधाक्षर के. त्रिषष्टि चतुपष्टिा बनाट् शुभनते मताः। अन्तर्गत समाविष्ट करके सभी कर्माटकके अनुराशिमें मिश्रित कर छोड़ दिया प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्ता स्वयंभुवः । है। कुमुदेन्दु के समान अन्य किसी महापुरुष में सम्पूर्ण भाषाओं को एक ही प्रकारादि हकारांन्तां शुद्धां मुक्तावलिमिव । | अंक में गर्मित कर काव्य रूप में गुफित करने की शक्ति नहीं हैं ऐसा में निश्चय सर्व व्यंजन भेदेन द्विधा भेदमुपयुम । से कह सकता हूं। - भूवलय ग्रन्थ की परम्परा इतिहास । प्रयोगवाह पर्यन्तां सर्व विद्या सुसंगतांम् । भवलय नामक विश्व काव्य की परम्परा को कुमुदेन्दु प्राचार्य ने प्रयोगाक्षर संभूति नंक बोजाक्षरश्चिता । । इस प्रकार बताया है कि प्राचीन काल में प्रादिनाथ तीर्थकर ने अपने समवादिवघत् ब्राह्मो मेघा विन्यति सुदरी गरिएतं । राज्य को, अपने पुत्र भरत और बाहुबली को बटवारा करके देते समय उनकी स्थानंक्रमः सम्यक् दास्यत् सतो भगवतो वक्तारः मिह श्रुताक्षरा पुत्रि ब्राह्मो और सुन्दरी इन दोनों पुत्रियों को सम्पूर्ण ज्ञान के मूल ऐसे अक्षरांक चलि, दभः इति व्यक्त सुमंगला सिद्ध मातृकं स भूवलय।। को पढाया था इस बात का हमने उपयुक्त प्रकरण में ही समझा दिया है । दोनों (५.१.२.२.१.४.५० बहिनों को पढ़ाया हा प्रक्षरांक गणित-ज्ञान-विद्याको भरत ने सीखने की इच्छा इस संस्कृत गद्यमें प्राचार्य कुमुदेन्दु ने सर्व भाषामयो भाषा का निरूपण व्यक्त नहीं की। किया है। और अंक लिपि में सात सौ अठारह भाषाओं में से प्रत्येक का विचार परायन गोमट देवनामोल्लेख किया गया है। ब्राह्मी, पवन, परिका, वराटिका, बजीद, खरसायिका रुगनु दोर्बलियवरक्क ब्राह्मोयु । किरिय सौंवरि परिति । प्रभूतका, उच्चवारिका, पुस्तिका, भोगवता, वेदनतिका, नियंतिका, अंक गरिपत । अरलाल्काक्षर नवमांक सोन या परिहर काव्य भूवलय।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 258