Book Title: Siddhasen Divakarjina Kevalgyan Darshan Angena Mantavya Vishe Vicharna Author(s): Trailokyamandanvijay Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 8
________________ जून २०१२ - ११३ तो आ ओक ज स्थळे अने परवक्तव्य मानवुं अथवा केवली - शब्दनो अर्थ बदली नाखवामां तमारी इच्छा सिवाय कयुं कारण ? आ प्ररूपणाओनी आगळ-पाछळना सन्दर्भों परथी पण अत्रे 'केवली' नो अर्थ 'केवलज्ञानी' ज लेवानो छे ते स्पष्ट समजाय तेवुं छे. (वि.ण. २५३-२५८) वळी, अल्पबहुत्वनी प्ररूपणामां पण साकारोपयोगी अने अनाकारोपयोगीनुं ज अल्पबहुत्व जोवा मळे छे, उभयोपयोगीनुं नहीं. ते पण जणावे छे के साकार अने अनाकार उभय उपयोग अकसाथै सम्भवे नहीं. (वि.ण.२६७) माटे समग्रपणे विचारतां ओक समय केवलज्ञान अने बीजा समये केवलदर्शन ओ रीते उपयोगोनी क्रमिक परावृत्ति ज स्वीकारवी अमने इष्ट लागे छे. * * * त्रणे उपरनी चर्चा परथी अभेदवाद, युगपवाद अने क्रमवाद वादोनुं हार्द बराबर स्पष्ट थइ जाय छे. हवे आपणे प्रस्तुत लेखना मूळ उद्देश्य पर विचार करीशुं. सिद्धसेन दिवाकर भगवन्त क्रमवादना विरोधी छे से अक निश्चित बाबत छे. पण तेओनुं पोतानुं मन्तव्य शुं छे ते विचारणीय मुद्दो बने छे. सिद्धसेन दिवाकरजीनुं केवलज्ञान-दर्शन विशेनुं पोतानुं मन्तव्य समजवा माटे उपलब्ध सामग्रीमां सन्मतितर्क- द्वितीयकाण्डनी ३ थी ३१ गाथाओ अने स्तुतिकारना नामे नोंधायेलुं ओक पद्य एवं कल्पितभेद...' ओम बे वस्तु छे. १६ आ सामग्रीना आधारे आपणे तेओना मन्तव्यनी विस्तृत छणावट करीओ ते पूर्वे केलांक बाह्य साक्ष्यो विशे जोई लइओ. श्री अभयदेवसूरिजी सन्मतितर्कनी वादमहार्णव नामनी स्वरचित टीकामां सिद्धसेन दिवाकरजीने अभेदवादी जणाव्या छे : " 'अत्र प्रकरणकारः क्रमोपयोगवादिनं तदुभयप्रधानाक्रमोपयोगवादिनं च पर्यनुयुज्य स्वपक्षं दर्शयितुमाह । ( - सन्मति ० २. ९नी अवतरणिका) “अत्र च जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यानामयुगपद्भाव्युपयोगद्वयमभिमतम् । मल्लवादिनस्तु युगपद्भावि तद्द्वयमिति । ( - सन्मति ० २.१० टीका) "साकारानाकारोपयोगयोनैकान्ततो भेद इति दर्शयन्नाह सूरिः । (-सन्मति. २.११ अवतरणिका)"Page Navigation
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