Book Title: Siddhasen Divakarjina Kevalgyan Darshan Angena Mantavya Vishe Vicharna
Author(s): Trailokyamandanvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 27
________________ १३२ अनुसन्धान-५९ सम्भवता होवाथी, न जोयेलुं अने न जाणेलुं बोलवानी आपत्ति रहेती नथी. स्वपक्षनी नबळी दलीलोनुं परपक्ष द्वारा करायेलुं मान्य खण्डन देखाडवुं ঔ वैचारिक उदारता छे. अने महामना आचार्य भगवन्ते अत्रे ओ ज उदारता दर्शावी होय तेम लागे छे. वि. भाष्य के वि.ण.मां आ दलील युगपद्वादना खण्डन दरम्यान देखाती नथी, ते पण जणावे छे के आ दलीलनो जवाब क्रमवाद तरफथी अत्रे ज अपाई गयो होवाथी तेनो पुनः उल्लेख जरूरी नहीं बन्यो होय. अण्णायं पासंतो अट्टिं च अरहा वियाणंतो । किं जाणइ ? किं पासइ ? कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ? ॥२.१३॥ टि. - जो केवली भगवन्त न जाणेलुं देखे छे अने न जोयेलुं जाणे छे, तो तेओ वास्तवमां शुं जाणे छे ? शुं देखे छे ? अने तेओ सर्वज्ञ पण कई रीते बनशे ? वि. प्रस्तुत भावने मळती गाथा वि.ण. मां २४६मा क्रमाङ्के जोवा मळे छे. - केवलणाणमणतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं । सागारग्गहणाहि य णियमपरित्तं अणागारं ॥२.१४ ॥ टी. केवलज्ञान जेम अनन्त छे तेम केवलदर्शनने पण अनन्त जणाववामां आव्युं छे. तथा साकार विशेषोना ग्राहक ज्ञान करतां तो अनाकारसामान्यमात्रने विषय बनावनाएं केवलदर्शन अवश्य परिमित विषयनुं ग्राहक बने छे. तेथी जो केवलदर्शन केवलज्ञानथी भिन्न होय तो तेमां केवलज्ञानथी तुल्य अनन्तता कई रीते आवे ? माटे बन्नेने अभिन्न गणवां जोइओ. - युगपद्वादी टीकाकार भगवन्त 'णियमऽपरित्तं' अवो पाठ स्वीकारे छे अने अर्थ पण ओवो करे छे के साकार- विशेषोमां रहेलुं जे सामान्य तेना ग्रहणनो नियम होवाने लीधे केवलदर्शन पण अपरिमित बने छे. २८ (अर्थात् तमाम विशेषोमां सामान्य रहेलुं ज होय छे. तेथी सामान्य पण विशेषोनी जेम अनन्त ज थवानुं. तो ते सामान्यनुं ग्राहक केवलदर्शन परिमित कई रीते बने ? ) वि. आ गाथानो युगपद्वादपरक अर्थ करवो त्यारे ज शक्य बने -

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