Book Title: Siddha Hemchandra Shabdanushasan Bruhad Vrutti Part 01
Author(s): Vajrasenvijay
Publisher: Bherulal Kanaiyalal Religious Trust

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Page 5
________________ एँ नमः किंचिद् वक्तव्यम् "श्री सिद्धहैम बृहद्वृत्ति लघुन्यास" यह व्याकरणविषयक एक विशालकाय ग्रन्थरत्न है । इसके संपादन के समय थोडा सा भूतकाल को याद किये विना इस संपादन की भूमिका को समजाना शक्य नहीं है । आज से लगभग २८ वर्ष पहेले संवत् २०१३ की साल में पाटण में परम पूज्य पंन्यासप्रवर श्री हर्ष विजयजी गणिवर्य श्री और मेरे भी संयम जीवन के अनन्य उपकारी परम पूज्य मुनिराज श्री महाभद्र विजयजीमहाराज की निश्रा में पंडित श्री शिवलालभाई के पास में पूज्य मुनिवर्य श्री धुरंधरविजयजी महाराज और मैंने १३ वर्ष की उमर में श्री सिद्ध हैम लघुवृत्ति का अभ्यास मेरे संयम - -दाता, वात्सल्य महोदधि परम पूज्य पंन्यासजी भद्रकर विजयजी गणिवर्य श्री और मेरे उपकारी पूज्य गुरुदेव परम पूज्य आचार्य देव श्री कुंदकुदसूरीश्वरजी महाराज ( उस समय मुनिराज ) के आशीर्वादों से शुरू किया था । उस समय संदिग्धस्थानों को देखने के लिए पंडितजी 'सिद्ध हैम वृद्धवृत्ति लघुन्यास ' की प्रत का उपयोग करते थे । उस समय उस प्रत की जीर्ण शीर्ण अवस्था देखकर हमको मन में ऐसी भावना हुई के बड़े होकर इसका पुनर्मुद्रण करवाएंगे, जिससे अभ्यासीओं को सुगमता प्राप्त हो सके । और तारकालिक उस प्रतकी सुरक्षा के लिए जीलेटीन पेपर के उपर एक-एक पन्ना लगा दीया और दो प्रतों में से एक प्रत को सुरक्षित बनाली । ऐसे इस प्रस्तुत ग्रन्थ का पुनर्मुद्रण का बीजारोपण हुआ था । बाद में यह बात विस्मृत हो गई। फिर से योगानुयोग इसी पाटण में संवत् २०३४ की साल में संघ स्थविर विशाल गच्छाधिपति परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का सुविशाल मुनि परिवार के साथ चातुर्मास हुआ । उस समय परम पूज्य, परम गुरुदेव पंन्यासजी महाराज श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री आदिकी निश्रा में मुझे और मुनि श्री रत्नसेन 'विजयजी को भी रहने का अपूर्व लाभ मिला । उस समय मुनि श्री रत्नसेन विजयजी का बृहदवृत्ति का बांचन चल रहा था । पूज्य पंन्यासजी महाराजश्री शरीर से अस्वस्थ होने के कारण मुझे तो समय का अभाव था । इस कारण मुनि श्री रत्नसेन विजयजी को मैने सूचन किया कि वृहद्वृत्ति के अभ्यास के साथ साथ लघुन्यास की हस्तलिखित प्रत को देखी जाय। उन्होंने मेरे सूचन का सहर्ष स्वीकार किया । और उस समय थोडे प्रकरणों को हस्तप्रत से मिलान कर लिया और बाद में इस कार्य के योग्य प्रयत्न जारी रखे। इस दरम्यान पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय जिनेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के पास पंडितजी की ब्यबस्था होने के कारण उन्होंने पंडितजी के साथ मीलकर इस ग्रन्थ की टीप्पणीयां तैयार करवाने का प्रारम्भ किया और स्वल्प टिप्पणीयां तैयार भी की । लेकिन वह टिप्पणीयां अपूर्ण होने के कारण इस ग्रंथ में उसे नहीं रखी । जो भविष्य में शक्य होगा तो प्रगट करेंगे ।

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