Book Title: Siddh Hemhandranushasanam Part 01
Author(s): Hemchandracharya, Udaysuri, Vajrasenvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Bherulal Kanaiyalal Religious Trust

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Page 15
________________ इस दरम्यान २०३९ का चातुर्मास जामनगर में हुआ । इस प्रथ के पुनः मुद्रण की भावना हृदय में तो थी ही । उसमें परम पूज्य आचार्य देव श्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराज की ओर से सुश्रावक हिंमतलालजी को सूचन हुवा की इस ग्रथ को “श्री भेरुलाल कनैयालाल कोठारी रीलीजीयस ट्रस्ट, चंदनबाला (बम्बइ)" की ओर से प्रकाशन का लाभ लेने जैसा है। इस बात को ट्रस्ट के ट्रस्टीओं ने तुरन्त ही स्वीकार लीया और यह कार्य गतिमान हुआ। जामनगर में व्याकरण के अच्छे अभ्यासी पंडितवर्य श्री ब्रजलालभाई उपाध्याय का योग था । इस कारण पंन्यास श्रीप्रद्युम्न विजयजी गणीवर श्री के पास से प्रति मंगवाकर पंडितजी के पास शुद्धि परिमार्जनादि करने का कार्य प्रारम्भ किया। इसके बाद शरीर अस्वस्थ रहने के कारण इस कार्य में सहयोगके लिए मुनि श्री रत्नसेन विजयजी को कहा और उन्होंने भी इस कार्य में सहयोग देने के लिए अपनी प्रसन्नता बताई । संवत् २०४० के चातुर्मास में रतलाम चातुर्मास दरम्यान मेरी सूचनानुसार योग्य अशुद्धि परिमार्जन के साथ तीसरे अध्याय से सात अध्याय तक 'लधुन्यास' की प्रेस कोपी तैयार की । जिससे प्रिन्टींग आदि में अति सरलता रह। । इस प्रकार अनेक महानुभावों की साहाय्य से संपादन कार्य प्रारम्भ हुआ । .. कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन के ऊपर स्वोपज्ञ वृहदवृत्ति आज भी उपलब्ध हैं। उस बृहदवृत्ति पर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री ने वृहन्न्यास (८४००० लोक प्रमाण) की रचना की थी । किन्तु दुर्भाग्य से वह ग्रन्थ पूर्णरुप से उपलब्ध नहीं है । उसका आंशिक भाग ही उपलब्ध हैं । उस वृहद्वृत्ति के किलष्ट स्थानों पर चान्द्रगच्छशिरोमणि परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय देवेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के शिष्य रत्न परम पूज्य आचार्य देव श्री कनक प्रभसूरिश्वरजी महाराज ने 'न्याससारसमुद्धार' की रचना की है । सद्भाग्य से वह पूर्ण ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है । "श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशामन की बृहदवृत्ति और न्याससार समुद्धार का प्रथम मुद्रण शासन सम्राट् परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद्विजय नेमिसूरीश्वरजी महाराजा का प्रेरणा से प. पू. आचार्य म. श्रीमद् विजय उदय सूरीरश्वजी म० ने करवाया था। संवत् १९६२ में पोरवाडज्ञातीय भगुभाई आत्मज मनसुखभाई की ओर से प्रकाशन हुआ था। कुछ वर्षो पूर्य व्याकरण वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वरजी महाराज ने श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन स्वोपज्ञ तत्त्वप्रकाशिका (बृहवृत्ति) शब्द महार्णवन्यास के प्रकाशन के साथ साथ प्रथम व द्वितीय अध्याय के लधुन्यास का भी प्रकाशन करवाया था । इस ग्रंथ के पुनः प्रकाशन में उपर्युक्त गर्व की आवृत्तियों का आधार लिया गया है। जहांजहां मुद्रण संबंधी अशुद्धियां थी उन्हें भी परिमार्जित करने का शक्य प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक सूत्र की वृहदवृत्ति के साथ ही लघुन्यास हो तो अध्ययन में विशेष सुविधा रहेगी, इसलिए प्रत्येक सूत्र के साथ ही लधुन्यास लिया है। पूर्व प्रकाशित लघुन्यास में जहां-जहां साक्षी सूत्रों के सांकेतिक नाम दिए गए थे-उन सूत्रों के क्रमांक का भी इसमें निदेश कर दिया है।

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