Book Title: Siddh Hemhandranushasanam Part 01
Author(s): Hemchandracharya, Udaysuri, Vajrasenvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Bherulal Kanaiyalal Religious Trust
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से कोयले के ढेर को स्वर्ण का ढेर जानकर श्रेष्ठी ने कहा, 'ये बाल मुनि तो प्रत्यक्ष ही स्वर्ण पुरुष है....वे सोमचन्द्र नहीं किन्तु हेमचन्द्र है ।'
हे गुरुदेव ! आप जब भी इन्हें आचार्य पद से अलंकृत करो तब उस के महोत्सव का लाभ मुझे प्रदान करे ।'
आचार्यपद अभिषेक :'सिद्ध सारस्वत' सोमचन्द्र मुनि की बुद्धि-प्रतिभा दिन प्रतिदिन वढने लगी । ज्ञान वृद्धि के साथ ही साथ उनकी वय भी बढने लगी । कुमारवय को वे पूर्ण कर चूके थे । उनके मुख मण्डल पर ब्रह्मचर्य का अर्व तेज था....वाणी में अत्यन्त ही मधुरता थी और आँखों में करुणा थी । ___ अनेक गुणों से अलंकृत सिद्ध सारस्वत सोमचन्द्र मुनि के विराट व्यक्तित्व और अद्भुत सामर्थ्य को देखकर गुरुदेवश्री ने उन्हें जिनशासन के तृतीय आचार्यपद से अभिव्यक्त करने का निर्णय लिया । चारों ओर सोमचन्द्र मुनि की आचार्य पदवी के शभ समाचार फैल गए। भक्त वर्ग ने भव्यातिभव्य प्रभु भक्ति महोत्सव का आयोजन किया और वैशाख शुक्ला तृतीया संवत् ११६६ के शुभ दिन मंगल मुहूर्त में पूज्य गुरुदेवश्री ने उन्हें अत्यन्त ही आनन्द-उल्लास पूर्वक आचार्यपद प्रदान किया और मुनि सोमचन्द्र का नाम आचार्य हेमचन्द्र सूरिजी रखा गया जो 'हेमचन्द्राचार्यजी' के शुभ नाम से विश्व-विख्यात बने । आचार्य पदवी का शुभ-आयोजन स्थभनपुर खंभात में ही हुआ था जो आचार्यश्री की दीक्षा भूमि भी थी और इसी शुभ दिन माँ पाहिनी ने भी राग जन्य सांसारिक परिवारिक बेड़ियों को तोड़कर जिन-शासन के चरणों में अपने जीवन का आत्मसमर्पण कर दिया और माँ पाहिनी भी साध्वी पाहिनी बन गई।
1. हेमचन्द्रसूरिजी म. आचार्यपदवी के एक वर्ष बाद पू. आ. श्रीदेवचन्द्रसूरिजी म. का स्वर्गवास हो गया ।
गुरुदेव के स्वर्गगमन के बाद हेमचन्द्राचार्यजीने खभात से पाटण की और विहार-यात्रा प्रारम्भ कर दी और कुछ ही दिनों में वे पाटण की पवित्र धरती पर पधार गए ।
, प्रतिभा की प्रभा: एक बार गुर्जर सम्राट् सिद्धराज हाथी पर बैठकर वनवाटिका के लिए निकला हुआ है और श्रीमद् हेमचन्द्रसरिजी म. सामने से आ रहे है । आचार्यश्री की तेजस्वी प्रतिभा को देखकर सिद्धराज अत्यन्त ही प्रभावित हुआ और आचार्यश्री के निकट आने पर उस ने कहा-हे सूरीश्वर ! आप कुछ कहो ! उसी समय समयज्ञ आचार्यश्री ने कहा--
कारय प्रसर सिद्ध ! हस्तिराजमशङ्कितम् ।
त्रस्यन्तु दिग्गजाः किं ते भूस्त्वयैवोद्धृता यतः ॥ अर्थ-हे सिद्धराज ! तू अपने हाथी को निःशंक होकर आगे बढा । कदाचित् दिग्गज घबरा जाय...तो उसकी चिन्ता मत करना, क्योंकि पृथ्वी को तू ही धारण कर रहा है।