Book Title: Siddh Hemhandranushasanam Part 01
Author(s): Hemchandracharya, Udaysuri, Vajrasenvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Bherulal Kanaiyalal Religious Trust
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कुमारपाल ने कहा, सत्य तो दयामय धर्म है । हिंसा से धर्म नहीं किन्तु पाप होता |
क्रुद्ध होकर देवी ने उसके शरीर पर त्रिशुल का प्रहार किया.... जिससे कुमारपाल के शरीर में को रोग फैल गया... फिर भी कुमारपाल अपने निश्चय से चलित नहीं हुए । किन्तु उन्हें लोग में धर्म की निंदा का भय लगा । उदयन मन्त्री हेमचन्द्राचार्यजी के पास आया और उसने सब घटना कह दी । हेमचन्द्राचार्य जीने मन्त्रित जल दिया जिसके छंटकाव के साथ कुमारपाल पुनः नीरोगी वन गए ।
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साधर्मिक उद्धार की प्रेरणा
एक बार हेमचन्द्राचार्यजी का पाटण में भव्य नगर प्रवेश था । उस समय हेमचन्द्राचार्य जी एक खादी की हल्की चादर (कपडा) पहने हुए थे । कुमारपाल ने जब यह देखा तो उसे बडा खेद हुआ । उसने कहा, 'गुरुदेव ! आप इस शुभ प्रसंग पर हल्की चादर क्यों ओढे हुए हो ? इसमें मेरा और आपका अपमान नजर आता है ।
आचार्यश्री ने कहा, 'राजन् ! यह चादर तो मुझे अमुक गाँव के श्रावक ने भक्ति पूर्वक बहोराई । उसकी स्थिति सामान्य हैं.. . अत: वह कीमति वस्त्र कैसे बहोरा सकेगा ? राजन् ! तेरे शासन में साधर्मिकों की ऐसी स्थिति है, इसका तुझे ख्याल रखना चाहिये ।'
कुमारपाल के लिए एक संकेत ही पर्याप्त था । उसी समय कुमारपाल ने साधर्मिकों के उद्धार की प्रतिज्ञा की । और उसने अपने जीवन में साधर्मिकों के उद्धार के लिए बहुत प्रयत्न किये ।
हेमचन्द्राचार्य जी के उपदेश को सुनकर कुमारपाल महाराज शत्रुंजय और गिरनार महातीर्थ का भव्य छ' री पालित संघ निकाला था और इस संघ के द्वारा मार्ग में आए अनेक जिन मन्दिर आदि का जीर्णोद्धार किया था ।
एक बार कुमारपाल के दिल में अपने पूर्वभव को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई, उसने अपनी भावना हेमचन्द्राचार्य जी के समक्ष अभिव्यक्त की । हेमचन्द्राचार्य जी ने सरस्वती नदी के किनारे सरस्वती की साधना कर कुमारपाल के पूर्व भव को जाना और कुमारपाल को कहा । 'मैं पूर्व भव में जयताक नाम का डाकू था... और परमात्मा की १८ पुष्पों से की गई पूजा के फल स्वरूप ही मैं १८ देश का सम्राट् बना हूँ । यह जानकर कुमारपाल के दिल में परमात्मा के प्रति अद्भुत भक्ति भाव जागृत हुआ और उसने प्रभु से प्रार्थना की—
जिनधर्म विनिर्मुक्तो मा भुवं चक्रवर्त्यपि । स्यां चेटोsपि दरिद्रोऽपि जिनधर्माधिवासितः ॥
हे प्रभु !
आपकी भक्ति के फल स्वरूप आगामीभव में जिन धर्म से युक्त दास व दरिद्र के घर जन्म लेना मंजूर हैं किन्तु जिनधर्म से रहित चक्रबर्ती का पद भी मुझे नहीं चाहिये ।
हेमचन्द्राचार्यजी के सदुपदेश से कुमारपालने अपने जीवन में श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए