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योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी का
जीवन परिचय
डॉ. हेमन्त कुमार जैनजगत नभोमण्डल में देदीप्यमान नक्षत्र के समान महान जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब ने अपनी योगसाधना के बल पर आत्मा में अन्तर्निहित अनन्त शक्तियों को उजागर कर जगत के उपकार के लिये अनेक प्रकार के सत्कर्मों द्वारा जैनधर्म की उत्कृष्ट मंगलमयी ध्वजा को लहराया।
जिस पावन भूमि के कण-कण में जैनधर्म एवं जैन सिद्धान्त समाहित है, वैसी गुजरात की हरितिमा भूमि के विजापुर गाँव में आज से १४० वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १९३० माघ कृष्णपक्ष १३ (महाशिवरात्रि) की अंधकारमयी रात्रि में पिता श्री शिवदास के आंगन में माता श्री अम्बाबाई की कुक्षि से पांचवें सन्तान के रूप में एक प्रकाशपुंज का अवतरण हुआ, जिसका नाम बहेचरदास रखा गया। किसान परिवार में जन्मे बालक का बालपन गाँव के बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों में और नदी के किनारे व्यतीत हुआ।
बहेचरदासजी का शारीरिक और बौद्धिक विकास अत्यन्त तेजस्वी था। माता-पिता एवं बड़ों का आदर, विनय-विवेकयुक्त व्यवहार से सबके प्रिय बालक थे। बालपन से ही एकान्तप्रिय, चिन्तनशील और परोपकारी भावनाओं से परिपूर्ण बहेचरदासजी ने प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के ही प्राथमिक शाला में प्राप्त की। अपने परिवार में शिक्षा ग्रहण करने हेतु विद्यालय जाने वाले ये प्रथम व्यक्ति थे। सातवीं कक्षा तक इन्होंने वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त कर सभी शिक्षकों का हृदय जीत लिया था। नया जानने एवं नया पढ़ने के लिये सदैव उत्सुक रहते थे। शिक्षा के प्रति इनके अन्दर इतना अधिक लगन था कि वे बाल्यावस्था से ही सरस्वतीमंत्र की साधना करते थे। बालपन में ही काव्यसजन की शुरुआत भी कर दी थी और माँ शारदे की कृपा से वह विधा बाद में इतनी विकसित हुई कि उन्होंने संस्कृतगुर्जर भाषा में आत्मलक्षी लगभग १०८ विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की। ___वैराग्य का बीज अन्तर में तो था ही संयोग मिला एक अप्रत्याशित घटना का | जब बहेचरदासजी की आयु १५ वर्ष की थी तभी एक अजीब सी घटना ने इनके जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन कर दिया। गाँव में दो भैंस आपस में लड़ रहे थे और तभी उस मार्ग से जैनसाधुओं का दल गुजर रहा था, लोगों को लगा कि अब जैनसाधुओं के साथ कुछ अनहोनी होकर ही रहेगी तभी बालक बहेचरदास
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