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अप्रैल २०१३
महान संयमी - जैनधर्म में भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित संयमव्रत ग्रहण करना और उसका पूर्णरूपेण पालन करना महान सौभाग्य की बात है। जैनसन्तों के सान्निध्य में रहकर शिक्षा प्राप्त करना एवं जैनशास्त्रों के अध्ययन से उनका मन विरक्ति की ओर प्रवाहित हो रहा था तभी वि. सं. १९५६ में गुजरात में भयानक अकाल पड़ा। बहेचरदासजी तब अहमदाबाद में थे, उस समय शेठ श्री नथुराम दोशी का पत्र आया कि आपके माता-पिता का स्वर्गवास आश्विन मास में चार-पाँच दिनों के अन्तराल में हो गया है। मृत्यु तो देह का होता है, यह ज्ञान बहेचरदासजी ने अपने अन्तर में तो पहले से ही पाल रखा था, वे विरक्त भाव से विजापुर पहुँचे और माता-पिता की सांसारिक विधियों का सादगी के साथ पूर्ण कर वापस पालनपुर पहुँचे। श्री रविसागरजी महाराज के शिष्य श्री सुखसागरजी महाराज पालनपुर में बिराजमान थे। उनकी वन्दना करके उनसे दीक्षा प्रदान करने की विनती की। विक्रम संवत् १९५७ मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष षष्ठी के दिन पालनपुर के नवाब और जैन श्रीसंघ के द्वारा भव्य दीक्षा महोत्सव का आयोजन किया गया जिसमें बहेचरदासजी को मुनिश्री बुद्धिसागरजी के रूप में पहचान मिली। नवदीक्षित मुनिश्री बुद्धिसागरजी दीक्षा ग्रहण करने के समय से ही अप्रमत्त संयमपालन, तपआराधना, योग-साधना, शास्त्रों का गहन अध्ययन आदि प्रारम्भ किया और जीवनपर्यन्त उनका अविच्छिन्न रूप से पालन किया । इनकी निष्कलंक ब्रह्मचर्ययुक्त प्रतिभा और तपोमय योगसिद्धि की सुवास सर्वत्र फैलने लगी । अपरिग्रही और अनासक्त जीवनशैली के धनी श्री बुद्धिसागरजी गोचरी में शुष्क आहार, एकासणा तप करते हुए साहित्य - सर्जन में आकंठ डूबे रहे ।
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इनके निर्मल और यशोमय जीवन से प्रेरित होकर पादरा के जैन श्रीसंघ ने चतुर्विध श्रीसंघ की उपस्थिति में इन्हें विक्रम संवत् १९७० मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन इन्हें आचार्यपद पर स्थापित किया ।
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जैनधर्म एवं मूर्त्तिपूजा के प्रबल समर्थक दीक्षाजीवन का प्रथम चातुर्मास सुरत में व्यतीत किया, उस समय जयमल पद्मींग नामक एक खिस्ती ने अपने प्रवचन में जैनधर्म के विरुद्ध बातें की। जैनशासन को अपने जीवन के कण-कण में समाहित करचुके और जैनधर्म के पंचमहाव्रत को आत्मसात करचुके श्री बुद्धिसागरजी महाराज को जब इस बात की जानकारी मिली तब उन्होंने 'जैनधर्म अने ख्रिस्ती धर्मनो मुकाबलो नामक ग्रन्थ की रचना कर उसका मुंहतोड़ जवाब दिया । इस ग्रन्थ के प्रकाशित होते ही जयमल पद्मींग सुरत से गायब हो गये। मुनिजीवन के प्रथम सोपान पर धर्मरक्षा के लिये मिली सफलता ने मुनिश्री