Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 5
________________ दो शब्द मनुष्य की जिस मनोभूमि में विचारों के सुन्दर अंकुर प्रस्फुटित होते हैं, मनुष्य की उसी मनोभूमि में विकारों की घास-पात भी उत्पन्न हो जाती है । विचार का विकास करना और विकार का विनाश करना -- यह साधकजीवन का चरम ध्येय-बिन्दु है। उस पर पहुँचने के लिए प्रतिक्रमण की अध्यात्म-साधना-एक मंगलमय माध्यम है । __ मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ? अपने अन्दर ही अपनी इस खोज को प्रतिक्रमण कहा गया है । स्वभाव से निकल कर, विभाव में पहुँच गये हों, तो फिर वापस लौट कर, स्वभाव में आना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण, साधक जीवन की संपुष्टि के लिए अमृत है। प्रतिक्रमण की साधना, परम आवश्यक तत्व है। श्रमण और श्रावक, दोनों के लिए प्रतिक्रमण करना आवश्यक माना गया है। प्रतिदिन सायं तथा प्रातः अवश्यमेव करणीय होने के कारण ही इसको अवश्यक भी कहा है। प्रतिक्रमण आत्मसंशुद्धि का परम साधन है। प्रस्तुत पुस्तक श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र है। श्रावक-प्रतिक्रमण अनेक प्रकाशित हुए हैं, तथापि जनता की ओर से एक शुद्ध एवं व्याख्या सहित उपयोगी संस्करण की बराबर मांग रही है। श्रावक प्रतिक्रमण का सम्पादन कोई सरल काम नहीं है। विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न प्रकार के श्रावक प्रतिक्रमण प्रचलित हैं। उनमें एकरूपता का अभाव है । प्रस्तुत पुस्तक का सम्पादन कैसा हुआ है ? इसका समाधान पाठक स्वयं करें। प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में पूज्य गुरुदेव के दिशादर्शन से मुझे बड़ा बल मिला है। इस कार्य की पूर्ति उनके दिशादर्शन के बिना सर्वथा असम्भव थी। पुस्तक के संकलन, सम्पादन एवं व्याख्या में भूलों का पता लगने पर अथवा पाठकों का सुझाव आने पर, सुधारने का यथोचित प्रयत्न किया जा सकेगा। -विजयमुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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