Book Title: Shravak Pratikraman me Shraman Sutra ka Sannivesh Author(s): Madanlal Katariya Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 3
________________ जिनवाणी 15,17 नवम्बर 2006 'श्रमणसंघः' शब्द बनता है। प्रश्न क्या किसी अन्य व्याख्याकार ने भी यह अर्थ किया है? उत्तर हाँ! बेचरदासजी कृत भगवतीसूत्र के भाषानुवाद में भी 'समणसंघे' का अर्थ श्रमण प्रधान संघ किया गया है। पारम्परिक दृष्टिकोण से देखें तो भी प्रतिक्रमण के अन्तर्गत आने वाले 'बड़ी संलेखना के पाठ' में भी 'साधु प्रमुख चारों तीर्थों' यही अर्थ प्राप्त होता है। इस आधार से भी श्रमण-प्रधान संघ यही अर्थ फलित होता है। प्रश्न माना कि सामान्यतः श्रावक के लिए श्रमण शब्द का प्रयोग आगम विरुद्ध है, किन्तु जब वह श्रावक सामायिक आदि धर्म क्रियाएँ कर रहा हो, उस समय उसे श्रमण कहने में क्या हर्ज उत्तर सामायिक करते हुए श्रावक को भी श्रमण कहना आगमानुकूल नहीं है। श्री भगवतीसूत्र के आठवें शतक के पाँचवें उद्देशक में “समणोवासयस णं भंते। सामाइयकडस्स" इस सूत्र के द्वारा सामायिक किए हुए श्रावक को भी श्रमणोपासक ही कहा गया है और तो और दशाश्रुतस्कंधसूत्र की छठी दशा में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन आया है। उनमें से सर्वोच्च ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक को कोई पूछे कि ___“केइ आउसो। तुमं वत्तळ सिया" ___ "हे आयुष्मन् तुम्हें क्या कहना चाहिए" तो इस प्रकार पूछे जाने पर वह उत्तर दे कि “समणोवासए पडिमापडिवण्णए अहमंसीति" "मैं प्रतिमाधारी श्रमणोपासक हूँ" जब सर्वोच्च प्रतिमा का धारक श्रावक भी श्रमणोपासक यानी श्रमणों का उपासक है, श्रमण नहीं तो फिर अन्य कोई भी श्रावक श्रमण कैसे कहला सकता है? स्पष्ट है कि किसी भी श्रावक को श्रमण नहीं कहा जा सकता । प्रश्न यदि श्रमण का अर्थ श्रावक न भी हो तो भी श्रावक को प्रतिक्रमण करते समय श्रमण सूत्र पढ़ने में क्या हर्ज है? उत्तर श्रमण सूत्र के अन्तर्गत आने वाली अनेक पाटियाँ ऐसी हैं।, जो श्रावक द्वारा प्रतिक्रमण में उच्चरित करने योग्य नहीं है। श्रमण सूत्र की पाँचवीं पाटी में कहा गया है __ “समणोहं संजय-विस्य-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे' अर्थात् “मैं श्रमण हूँ, संयत हूँ, पाप कमों को प्रतिहत करने वाला हूँ तथा पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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