Book Title: Shravak Pratikraman me Shraman Sutra ka Sannivesh Author(s): Madanlal Katariya Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 6
________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 327 कथन भी साधुओं के लिए हो गया है। इसका तात्पर्य यह है कि साधु इन उपासक प्रतिमाओं की श्रद्धा - प्ररूपणा शुद्ध रूप से करे। क्या इस कथन से ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि यहाँ शास्त्रकारों को श्रमण निर्ग्रन्थ का अर्थ 'श्रावक' करना अभीष्ट है? उत्तर नहीं । इसी पाठ के आगे के सूत्रों को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रमण निर्ग्रन्थ का अर्थ साधु ही होता है, श्रावक नहीं। देखिए वे सूत्र इस प्रकार हैं से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं निग्गंथाणं पंचमहव्वइए सपडिक्कमणे अचेलए धम्मे पण्णत्ते एवामेव महापउमेवि अरह समणाणं निग्गंथाणं पंचमहत्वइयं जाव अचेलयं धम्मं पण्णवेहिइ । से जहाणामए अज्जो । मए पंचाणुव्वइए सत्तसिक्खावइए दुवालसविहे सावगधम्मे पण्णत्ते एवामेव महापउमेवि अरहा पंचाणुव्वइयं जाव सावगधम्मं पण्णवेस्सह । अर्थ- आर्यों! मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए जैसे- प्रतिक्रमण और अचेलतायुक्त पाँच महाव्रत रूप धर्म का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत महापद्म भी श्रमण- -निर्ग्रन्थों के लिए प्रतिक्रमण और अचेलतायुक्त पाँच महाव्रत रूप धर्म का निरूपण करेंगे। आर्यों! मैने जैसे पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के श्रावक धर्म का निरूपण किया है, इसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार के श्रावक धर्म का निरूपण करेंगे। प्रश्न प्रश्न यहाँ पाँच महाव्रतों का कथन करते समय 'समणाणं निग्गंथाणं' इन शब्दों का प्रयोग किया गया है किन्तु पाँच अणुव्रत आदि बारह प्रकार के श्रावक धर्मो का कथन करते समय 'समणाणं निग्गंथाणं' इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया है। यदि श्रमण निर्ग्रन्थ का अर्थ श्रावक करना शास्त्रकारों को इष्ट होता तो शास्त्रकार पाँच अणुव्रतों का कथन करते समय भी 'समणाणं निग्गंथाणं' इन पदों का प्रयोग करते, किन्तु आगमकारों ने ऐसा नहीं किया जिससे स्पष्ट है कि श्रमण निर्ग्रन्थ का अर्थ साधु ही होता है, श्रावक नहीं ! क्या किसी अन्य आगम में भी तैंतीस बोलों का सामूहिक कथन मुनियों के लिए किया गया है? उत्तर हाँ, उत्तराध्ययनसूत्र के इकतीसवें 'चरणविधि' नामक अध्ययन में भी इन तैंतीस बोलों का कथन है। वहाँ भी इन सभी बोलों को भिक्षु अर्थात् साधु के साथ सम्बन्धित किया गया है। यह तो समझ में आया, किन्तु श्रमण सूत्र की तीसरी पाटी “पडिक्कमामि चाउक्कालं सज्झायरस अकरणयाए उभयोकालं भण्डोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए दुप्पडिलेहणाए...... का उच्चारण श्रावक प्रतिक्रमण में क्यों नहीं किया जा सकता ? प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only "" www.jainelibrary.orgPage Navigation
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