Book Title: Shravak Pratikraman me Shraman Sutra ka Sannivesh
Author(s): Madanlal Katariya
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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Page 7
________________ 328 उत्तर जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 उस पाटी का उच्चारण भी श्रावक प्रतिक्रमण में होना उपयुक्त नहीं है। यह पाटी उभयकाल नियमपूर्वक वस्त्र - पात्रादि की प्रतिलेखना करने वाले मुनियों के प्रतिलेखन सम्बन्धी दोषों की विशुद्धि के लिए है । साधारणतया कोई श्रावक ऐसा नहीं होता कि अपने सभी वस्त्रों, बर्तनों, उपधियों की प्रतिलेखना करे। यदि श्रावक अपनी सभी वस्तुओं की प्रतिलेखना करे तो शायद सुबह से शाम तक प्रतिलेखना ही करता रहे। उभयकाल नित्य प्रति प्रतिलेखना का विधान भी मुनियों के लिए किया गया है तथा उसका प्रायश्चित्त विधान भी निशीथ सूत्र में किया गया है। यथा- 'जे भिक्खू इतरियं पि उवर्हि ण पडिलेहइ ण पडिलेहंतं वा साइज्जइ' जो भिक्षु थोड़ी सी भी उपधि की प्रतिलेखना नहीं करता है या नहीं करने वाले का अनुमोदन करता है, वह प्रायश्चित का भागी है। चूंकि प्रतिलेखना का नित्य विधान मुनियों के लिए ही है। अतः इस पाटी का उच्चारण भी मुनियों को ही करना चाहिए, श्रावकों को नहीं । प्रश्न पौषध व्रत में श्रावक भी प्रतिलेखन करता है, अतः श्रावक भी यह पाटी क्यों न बोले ? उत्तर पौषध व्रत श्रावक नित्य प्रति नहीं करता है। अतः श्रावक प्रतिक्रमण में इसके उच्चारण की आवश्यकता नहीं रहती है। साथ ही यह भी समझने योग्य है कि पौषध व्रत में लगे प्रतिलेखन सम्बन्धी दोषों की विशुद्धि पौषध व्रत के अतिचार शुद्धि के पाठ से हो जाती है। वहाँ बतलाया गया है- "अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय सेज्जासंथारए, अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय सेज्जासंथारए" यानी " शय्या संस्तारक की प्रतिलेखना न की हो या अच्छी तरह से न कीं हो, पूंजा न हो या अच्छी तरह से न पूँजा हो।... 1.तस्स मिच्छामि दुक्कडं । अतः पौषध व्रत में की जाने वाली प्रतिलेखना के दोषों की शुद्धि के लिए श्रमण सूत्र की इस पाटी के उच्चारण की कोई आवश्यकता नहीं है। , प्रश्न जैसे पौषध व्रत नित्य प्रति नहीं किया जाता फिर भी उसके अतिचारों की शुद्धि का पाठ श्रावक प्रतिक्रमण में है, वैसे ही प्रतिलेखन नित्य प्रति नहीं किया जाने पर भी उसके दोषों की शुद्धि का पाठ श्रावक प्रतिक्रमण में क्यों नहीं हो सकता ? श्रावक प्रतिक्रमण की विधि का सूक्ष्म निरीक्षण करने से ज्ञात होता है कि जो पाटियाँ श्रावक के नित्यक्रम से जुड़ी हुई हैं यानी जो व्रत जीवनपर्यन्त के लिए हैं, उनकी शैली में तथा कभी - कभी पालन किये जाने वाले व्रतों की शैली में कुछ फर्क है। श्रावक के प्रथम आठ व्रत जीवनपर्यन्त के लिए होते हैं तथा अन्तिम चार व्रत कभी-कभी अवसर आने पर आराधित किए जाते हैं। कभी- कभी पालन किये जाने वाले पौषध आदि व्रतों में प्रायः इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया गया है कि “ऐसी मेरी सद्दहणा प्ररूपणा तो है पौषध का अवसर उत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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