Book Title: Shraman ka Sthal Jal Vyom Vihar Author(s): Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 3
________________ श्रमण का स्थल-जल-व्योम-विहार / १५१ पूर्व में अंग एवं मगध तक, दक्षिण में कौसंबी तक, पश्चिम में स्थूणादेश तक उत्तर में कूणाल देश तक ।' असीम विहार का विधान भी ___ जहाँ-जहाँ ज्ञान दर्शन चारित्र आदि की वृद्धि सम्भव हो वहाँ-वहाँ सर्वत्र विहार कर सकते हैं। इस विहारसीमा-निर्धारण की पृष्ठभूमि में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की वृद्धि ही प्रधान है। यदि पार्यक्षेत्र में भी जिस पोर विहार करने से ज्ञानादि की हानि होने की सम्भावना हो तो उस अोर विहार न करे। यदि अनार्य कहे जानेवाले क्षेत्रों में भी जहाँ-जहाँ पार्यों जैसा वर्तन-व्यवहार हो और ज्ञानादि की वद्धि संभव हो तो वहाँ-वहाँ विहार करना आगमानुसार निषिद्ध नहीं है। स्थल-विहार के अपवादविधान वर्षावास में विहार करने का यद्यपि सर्वथा निषेध है किन्तु प्रागमविहित कतिपय अपवाद विधानों के अनुसार श्रमण-श्रमणीगण वर्षावास में भी विहार कर सकते हैं। ये अपवाद विधान पांच हैं १. किसी गांव या नगर में श्रमण वर्षावास रह रहे हों उस समय किसी संक्रामक रोग से वहाँ के निवासियों को सामूहिक अकाल मृत्यु होने लगे और उस रोग से बचने के लिए वहाँ के निवासी सामूहिक प्रव्रजन कर अन्यत्र जाने लगें तो श्रमण भी वर्षावास में विहार करके अन्यत्र जा सकते हैं । इस अपवादविधान के मूल में-"शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" की भावना निहित है प्रागमानुसार आत्मविराधना तथा उससे होनेवाली संयमविराधना न हो इसके लिए ही यह अपवाद विधान है । क्योंकि स्वस्थ शरीर से ही संयमसाधना संभव है। २. इसी प्रकार जहाँ श्रमण वर्षावास रह रहे हैं वहाँ और आसपास के प्रदेश में दुष्काल हो जाने से भिक्षा [ आहारादि का मिलना ] दुर्लभ हो जाए तो-वर्षावास में भी श्रमण विहार करके जहाँ सुभिक्ष [ आहारादि का मिलना सुलभ ] हो वहाँ जा सकते हैं। इस अपवाद विधान के मूल में "भूखे भजन न होई गोपाला' इस लोकोक्ति की भावना निहित है। १. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरस्थिमेणं जाव अंगमगहाम्रो एत्तए, दक्खिणेणं जाव कोसम्बीओ एत्तए, पच्चत्थिमेणं जाव थूणाविसयानो एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयानो एत्तए । एयावयाव कप्पइ, एवावयाव पारिए खेत्ते । नो से कप्पइ एत्तो बहि, -कप्प. उ. १. सु. ५२ २. तेण परं जत्थ नाण-दसण-चरित्ताई उस्सप्पन्ति । -कप्प. उ. १, सु. ५२ धम्मो दीवो । संसार समुद्र में धर्म ही दीप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only eliblar.orgPage Navigation
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