Book Title: Shraman ka Sthal Jal Vyom Vihar Author(s): Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 1
________________ श्रमण का स्थल - जल - व्योम - विहार D श्रनुयोगप्रवर्तक मुनि कन्हैयालाल 'कमल' श्रमण अपना जीवन संयम साधना के लिए निर्धारित करके स्व-पर का कल्याण करता है अतः उसका कारण नित्य निवास निषिद्ध है और ग्रामानुग्राम-विहार विहित है । 2 उत्सर्ग-विधान के अनुसार विहार के नौ विभाग हैं शीतकाल के चार मास तथा ग्रीष्मकाल के चार मास - इस प्रकार आठ मास के प्राठ विहार और वर्षावास के लिए किया जानेवाला नौवां विहार । ये नवकल्पी विहार माने गये हैं । क्योंकि वर्षावास के चार मास में विहार करने का निषेध है और शीत तथा ग्रीष्म के आठ मास में विहार करने का विधान है । रात्रि विहार निषिद्ध सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के बाद विहार का निषेध है अतः दिन में ही विहार करना स्वतः सिद्ध है । विहार की विधि श्रमण राजपथ पर चार हाथ दूर तक श्रागे-आगे देखता हुप्रा तथा त्रस स्थावर जीवों को बचाता हुआ चले । १. जे भिक्खू नितियं वासं वसइ, वसंतं वा साइज्जइ । — निशीथ - उद्दे. २, सु. ३७ २. राम्रोवरयं चरेज्ज लाढे, विरए वेदवियाऽऽयरक्खिए । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी जे कम्हिवि न मुच्छिए स भिक्खू ॥ ३. वासावासवज्जं अट्ठ गिम्हहेमंतियाणि मासाणि गामे एगराइया, उत्त. प्र. १५, गा. २ णयरे पंचराइया । ४. नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, वासावासासु चारए । acus निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, हेमन्त गिम्हासु चारए । कप्प. उ. १, सु. ३७-३८ ५. नो कप्पइ निग्गंथाण व निग्गंथीण वा, राम्रो वा वियाले वा, श्रद्धाणगमणं एत्तए । - कप्प. उ. १, सु. ४६ ६. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरप्रो जुगमायं पेहमाणे दट्ठूण तसे पाणे अद्धट्टु पादं रीएज्जा, साहट्ट, पादं रीएज्जा, वितिरिच्छं वा कट्टु पादं रीएज्जा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा, ततो इज्जेज्जा । संजयामेव गामानुगामं Jain Education International प्रोप. सु. २९ भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे, अन्तरा से पाणाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा उदए वा मट्टिया वा अविद्धत्था, सति परक्कमे जाव णो उज्जुयं गच्छेज्जा, ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । आचा. सु. २, अ. ३, उ. १, सु. ४६९-४७० For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.orgPage Navigation
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