Book Title: Shraman ka Sthal Jal Vyom Vihar
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 10
________________ चतुर्थ खण्ड | १५८ प्रथम मत- मूर्तिपूजक व्याख्याकार "चैत्यवन्दन" से "जिनप्रतिमा" प्रादि का वन्दन व्यक्त करते हैं। द्वितीय मत-स्थानकवासी व्याख्याकार "चैत्यवन्दन" से "ज्ञानियों की स्तुति" व्यक्त करते हैं। दोनों पक्ष अपनी अपनी मान्यतानों पर अटल हैं। चैत्यवंदन के प्रस्थापित सूत्र चैत्यवन्दन को प्रागम-प्रमाण से सिद्ध करने के लिए एक प्रागम प्रति में कुछ सूत्र प्रस्थापित किए। उस प्रति की लिपिकों ने जितनी प्रतिलिपियां कीं, उन सबमें वे सत्र अमर हो गए। यह अमोघ प्रयोग अनेकानेक सूत्रों को प्रस्थापित करने के लिए अपने अपने युग में सबने अपनाया है। स्थानकवासियों को प्रस्थापित सूत्रोंवाली ही प्रतियां मिलीं अत: अपनी मान्यता का अर्थ करके उन सूत्रों को स्वीकार कर लिया। [१] जिस समय भरत ऐरवत एवं महाविदेह में चारणलब्धिसम्पन्न श्रमण विद्यमान थे, उस समय तो साक्षात् जिनदेव भी वहाँ विद्यमान थे । महाविदेह में तो शाश्वत विहरमान जिन भी विद्यमान थे, वे भी उत्कृष्ट १७० तो थे ही, फिर भी वे चारण श्रमण मनुष्य क्षेत्र से बाहर जाकर चैत्यवन्दन करते थे। ___ इसका फलितार्थ यह हुआ कि-प्रत्यक्ष जिनवन्दन से भी मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चैत्यवन्दन का महत्त्व अधिक है। 'चारणमुनियों के व्योमविहार की त्वरित गतिशक्ति देखते हुए नन्दीश्वर द्वीप या पण्डगवन तक जाने आने में एक या दो उडानों का कथन भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एक चुटकी बजावे जितने समय में जम्बूद्वीप की सात परिक्रमा करने वालों के लिए उक्त दूरी तक तिरछे या ऊपर जाना तो सामान्य कार्य है । प्रस्थापित सूत्रों की कसौटी [२] चैत्यवन्दन संवर का कृत्य है या निर्जरा का ? यदि संवर का कृत्य है तो नन्दीश्वर द्वीप या पण्डगवन तक जाने-माने में होने वाली असंख्यासंख्य वायुकायिक जीवों की हिंसा का प्रायश्चित्त करने की क्या आवश्यकता है ? संवर के बिना निर्जरा नहीं होती, इस सिद्धान्त के अनुसार लब्धिप्रयोग के प्रमाद का प्रायश्चित्तविधान कहाँ तक संगत है । चैत्यवन्दन के लिए लब्धि-प्रयोग अनिवार्य है, अत: प्रमादरूप अधर्म से चैत्यवन्दन धर्म की स्थापना हो गई है। इस प्रकार ये सूत्र प्रस्थापित प्रतीत होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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