Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 7 Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 4
________________ ५ पुल के गानादि पर्याय प्रयुक्त जो उत्पति होती है उसे ऐकविक उत्थान कहा जाता है । agnife अनैविक भी है क्योंकि पुद्गलादि द्रव्य और धर्मास्तिकायादि य के मिलने से यह उत्पन होता है। इस प्रसंग में व्याश्या में माकाशादि द्रम्य में सावयवत्व की सिद्धि की गयी है । उत्पाद की तरह नाश भी द्विविष है प्रायोगिक मोर स्वाभाविक । उसमें समृदयकृत दोनों प्रकार में शामिल है और वह समुदयविभागजन्य होता है जैसे घट के तन्तुओं का पृथक्करण। दूसरा अर्थान्तरगमन रूप विनाश है जैसे मृत्पिड का घट में रूपान्तरगमन 1 वस्तु का अपने स्वभाव से चलित न होना यह यता है । प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और धवला से भन्वित होती है। ये तीनों भी परस्पर में भिन्नाभिन्नरूप होते हैं। इस प्रकार एक ही वस्तु प्रत्येक क्षण में अनत अनंत पर्यायों से अनुविद्ध रहती है। वस्तु उत्पादादित्रयात्मक होती है इस तथ्य के उपपश्धन में ग्रन्थकार ने दूसरी कारिका में सुवर्ण के घट-मुकुट का मनोहारि दिखाया है। जब सुषण के घटको सो कर मुकुट बनाया जाता है उस वक्त घटार्थी को शोक, मुकुटार्थी को आनंद होता है जब कि सिर्फ सुवर्ण के वाहक को कुछ भी नहीं होता, वह तो मध्यस्थ रहता है। कार्य से बसु ने उपादाहती है। प्रसंग में व्यरूपाकार ने सम्मकिरण गाथा को साक्षि से अनेकान्त स्वयं भी अनेकान्तगर्भित होता है इस तथ्य का सयुक्तिक उपपाम किया है। अन्य एक रीति से अनेकान्सवाद के समर्थन में तीसरी कारिका में दूध यहीं और मोरसान्य के का दिया गया है। तात्पर्य यह है कि तुम और यहीं में एकान्त भेद नहीं है किन्तु गोरखाममा कचित् प्रभेद भी है इस लिये गोरस का स्थागी न दूध पीता है न हीं खाता दूध रूप से मोरस का बिनाया, वहीं रूप से उत्पाद और गोरसात्मना बता - इस प्रकार उत्पादादिजयरूपता को उपपत्ति होती है। यहाँ कपास्या में अतिरिक्त निश्य सामान्यवाद का विस्तार से रिन किया गया है। ( १०२१ से ५२ ) अन्त में वस्तु सामान्य विशेषोभयात्मक है यह स्थापित किया गया है। कारिका चार-पांच-छह में अनेकान्तवादविरोधियों का पूर्वपक्ष दिखाते हुए कहा है कि एक ही में एक समय में उत्पादादि का योग विरुद्ध है। शोकादि की जो बात कही गयी यह तो केजस मामूलक है। कारिका ७ और में भी दोष दिखाते हुए कहा है कि स्याद्वाद में, किसी वस्तु का पूरा निश्रय होता भसमय है क्योंकि प्रमाण भी इस मत में मप्रमाण होगा। तथा संसारी असंसारी भी होगा और मुक्त अमुक्त भी होगा। इस पूर्वपक्ष के प्रतिकार में का० ६-१० र ११ में विरोधावि उक्त दोषों का कैसे परिहार होता है यह कहा गया है। उपास्तिक और पर्यायास्तिक एकान्त नय के निराकरण से यहाँ अनेकान्त सिद्ध किया गया है। 'यदि प्रत्येक मय मिथ्या है तो नयसमुदाय कैसे सभ्य होगा ? इस वंका का व्याख्या में सुन्दर समाधान किया है ( पृ० ५८ ) । तथा नय को प्रमाण माने या न माने इसका भी स्पष्ट उत्तर दिया है कि नयवाक्य में संज्ञान में प्रकारको जनकत्व अथवा समारोपयदस्या निर्धारक किया इतर वाऽप्रतिक्षे विश्व स्वरूप प्रामाण्य हो सकता हूँ किन्तु अनेकान्तस्वरूपस्याहरूरूप प्रामान्य एक एक मय में न होने से प्रमाण से मि होता है' ऐसे तस्मासूत्र के कमन में कोई दोष नहीं है ( पृ० ६० ) तथा दुनेय में मिध्यात्व का भी संयुक्तिक उपपादन किया गया है (०६९) द्रव्याथिक पदविधिक नय के स्वरूप की यहाँ सुन्दर मीमांसा उपलब्ध है।Page Navigation
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