Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 3
________________ भाव प्रतीति का समर्थन, प्रगतिले पूर्टोर ? वास्तु के एकत्व जो जापत्ति, सुखादि और ज्ञान के अमेदवाद का खण्डन इत्यादि दृष्टव्य है। पुनः बाह्यार्थसिद्धि में, 'मैं घट को जानता हूं' यह प्रतोति, घटावि में प्रवृत्ति, उसको प्राप्ति, उससे साध्य अर्थक्रिया का योग, स्मति और कौतुकमाघ ये छः हेतु [ का० १३ में ] का उपन्यास किया है। विपक्ष में यह दोष दिखाया है कि [फा०१४ ] जगत् को शाममात्ररूप मानने पर लौकिक और शास्त्रीय सभी प्रकार की प्रवृत्ति का उच्छेद हो जाएगा । का० १५ में यह प्रश्न किया है। कि सन्तानान्तर वृत्ति ज्ञान और प्रथं दोनों में विज्ञानान्तर से असंवेदनावि तुल्य होने से केवल बाह्मार्थ का प्रवेष क्यों ? अर्थ के ऊपर जैसे विविध विकल्प लगा कर उसकी असत्ता दिखायी जाती है, ज्ञान के लिये मी वैसे विकल्प सावकाश है-का० १७ और १८ से ज्ञान के ऊपर ग्राह्यस्वभावसा, ग्राहकस्वभावता, उभयस्वभावता और अनुभयस्वभावता ये चार विकल्प ऊठाकर व्याख्याकार ने कुशलता से उनका निराकरण दिया है। इसमें बौबवावी देवेन्द्र के चित्रज्ञानवाद को समालोचना को गयो है, [दे० पृष्ठ ६७ से ७४ ] तदनन्तर पुनः बौद्ध ने विज्ञानमात्र की सिद्धि के लिये यह युक्ति लडाई है कि विज्ञान एकमात्र प्रकाशस्वभाव और अकर्मक है, अतः स्व प्रकाश होने से वह अद्वय है। शयनादि लिया जैसे अकर्मक होती है बंसे ज्ञानक्रिया भी अकर्मक ही है फिर भी उसका सकर्मक प्रयोग होता है यह वासना मूलक है । इस युक्ति के विरुद्ध प्रन्यकार का यह सुझाय है कि उक्त मत में कोई प्रमाण है या नहीं यह स्वयं ही सोचिये। यदि ज्ञान अकर्मक ही होगा तो जैसे शयनावि क्रिया स्वप्रकाशक नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान भी अपना प्रकाश नहीं कर पायेगा। यदि उसे स्वप्रकाश हो मानना है तो अकर्मकता कैसे होगी ? अन्य ज्ञान से भी उसको स्वप्रकाशता तभी सिद्ध हो सकती है यदि उस दूसरे ज्ञान को सकर्मक माना जाय, अन्यथा नहीं । २८ वो कारिका तक प्रकर्मफरव का निराकरण करके २६ वीं कारिका से ३८ कारिका तक विज्ञानवाद में संसार-मोक्ष के अविशेष हो जाने को आपत्ति का प्रस्थापन करके उपसंहार में यह कहा गया है कि विज्ञानवाद युक्तियुक्त न होने से उसमें प्राज्ञ पुरुषों का अभिनिवेश नहीं होना चाहिए। [ स्तवक ६ का अभिधेय ] मंगलाचरण के बाद व्याख्याकार ने बौद्ध प्रयुक्त नाशहेतुअयोग आदि चार हेतु (दे० स्तबक 'मीक्षा का मल कारिका के आधार पर प्रारम्भ किया है। यहां से २३ कारिका में नाशहेतु अयोग कर, कारिका २४ से ३० तक अर्थक्रियासमर्थत्व द्वितीय हेतु का, ३१ से ३७ तक परिणाम हेतु का और ३ से ४४ तक 'अन्ते क्षयेक्षण चतुर्थ हेतु का प्रतिक्षप किया गया है। नाशहेतुअयोग के प्रतिक्षेप में यह कहा है कि भाव स्वतः नश्वर या अनश्वरस्वभाव नहीं किन्तु नाशकसापेक्षनश्वरस्वभाव मानने पर नामहेतुयोग घट जाता है जैसे कारण सापेक्ष उत्पत्ति मानी जाती है। १२वीं कारिका में यह भी एक प्रधान दोष दिखाया है कि यदि नाश । मानेंगे तो कोई किसी का कहीं भी घातक हिसक नहीं रहेगा । १६ वी कारिका से एक प्रतिबन्दी उत्तर भी अन्य मत से प्रस्तुत किया है कि वस्तु को उत्पत्ति को हेतुसापेक्ष मानने पर चार विकल्प शक्य हैं हेतुतथा अभिप्रेत भाव क्या सत्स्वभाव वाले अन्य का जनक होता है ? या असत्स्वभावजन्य का? या उभयस्वभावजन्य का ? अथवा अनुभयसमावजन्य का जनक होता है ? पश्चाद्

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