Book Title: Saptasandhan Mahakavya
Author(s): Meghvijay, Amrutchandracharya
Publisher: Jain Sahitya Vardhak Sabha

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Page 7
________________ ज्ञान-धनने पुष्ट करे छे. अने बाह्य-स्वरुप पुस्तक-कोषने शोभावे छे. जेनी पासे आ पुस्तक के तेना विचारो नथी, ते विद्वत्तामा अपूर्ण छे. माटे दरेक सहृदय आवा विशिष्ट काव्यद्वारा विशेषता मेळावा भाटे तेना अध्ययन-अध्यापनमां उधत थाय ने कल्याण साधे एज अभिलाषा. देवबाग-लक्ष्मीजैनाश्रम जामनगर. - मुनि धुरन्धरविजय. स २००० अषाढ शुक्ल पञ्चमी । -: प्रकाशकीय निवेदन :संस्कृत साहित्यना परम-आभूषणरूप आ सप्तसन्धान महाकाव्यने टीका सहित प्रकट करवानो लाभ अमने मळ्यो छे तेथी अमो अमोने अहोभाग्य समजीए छीए. प्रथम आ ग्रन्थ मूलमात्र श्रीयशोविजयजी ग्रन्थमाळाए प्रकट को हतो, ने ते प्रकट करतां तेनी प्रस्तावनामा मृचव्युं हतुं के, टीका विना आवा अत्यन्त कठीन ग्रन्थनो अवबोध थवो सुलभ नथी, माटे टीकासहित भा ग्रन्थने छपावी प्रसिद्ध करवानी अमारी सम्पूर्ण इच्छा छतां, ज्यारे कोइपण टीका अमने उपलब्ध न थइ एटले मूलमात्र पण आ ग्रन्य विनाश न पामे, माटे छे एमने एम प्रसिद्ध करीए छीए. कोइ विद्वाम् आ ग्रन्थनी टीका करशे तो घणो उपकार थशे ! पूज्यपाद-आचार्य महाराज श्रीविजयामृतसूरीश्वरजी महारा. जश्रीए वर्षों पूर्वे आ अद्वितीय ग्रन्थनी टीका रचत्रानो आरम्भ करेल, त्यारवाद सं. १९९३ मां कपडचणज मुकामे महाराजश्री चातुर्मास रह्या त्यारे शेठ जेसींगभाइ, न्यालचंदभाइ वगेरेए महाराजश्रीने साग्रह विनति करी के 'आप आ ग्रन्थनी टीका पूर्ण

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