Book Title: Sanskrit and Prakrit Manuscripts Jaipur Collection Part 11
Author(s): M Vinaysagar, Jamunalal Baldwa
Publisher: Rajasthan Oriental Research Institute Jodhpur

Previous | Next

Page 632
________________ Catalogue of Sanskrit & Prakrit Manuscripts Pt. XI (Appendix) 529 [ इसी ७११० के गुटके में इसी लिपि में पत्रांक ३०३ पर लेखन प्रशस्ति प्राप्त है, वह निम्नांकित है।] Colophoric : ॥ संवत् १५६४ वर्षे वैशाख वदि २ वार बुधे लिखितं ।। शिवमस्तु ।। श्रीजिनमाणिक्यसूरिभिः राज्ये श्री प्राचार्य श्रीकीतिरत्नसूरीश्वर श्रीगुणरत्नसूरीश्वर शिष्य श्रीधर्मरत्नसूरीश्वर श्री लावन शील उपाध्याय श्री किल्याणचन्द्रोपाध्याय वाचनाचार्य श्री हर्षविशालगणि तत्शिष्य वा० हर्षधर्मगणिशिष्य पुण्यमाणिक्य श्री संखवाल गोत्र कोचर सन्ताने संघवी प्रापमल देपा । देपापुत्र सा० केल्हउ पुत्र सा० धन्ना पुत्र सा० नरसिंघ पुत्र सा० कुरा पुत्र सा० नवा प्रभ चोला सुरतारण नेता प्रमुख परिवार वाचनार्थम् ।। 2061/6929 सुभाषित-तिशिका-सस्तबका Opening प्रों नमः प्रज्ञाप्रकाशाय नवीनपाठी: श्रीमारूदेवं दृषभं प्रणभ्य । काव्यानि चाहं कवयामि यानि, तज्जैविंशोध्यानि समानि तानि ॥१।। देवेषु देवस्तु निरञ्जनो मे, गुरुर्गुरुष्वस्तु दमी शमी मे । धर्मेषु धर्मोस्तु दयादरो मे, त्रीण्येव तत्त्वानि भवे भवे मे ।।२।। X Closing : लुकाख्यगच्छे वरमित्रतुल्यं, यशस्वितामा गणिनां गरिष्ठम् । तस्य प्रसादाच्च सुभाषितानां, षट्त्रिंशिकेयं मयका प्रणीता ।। ३७. लुकागच्छनै विषइ प्रधान सूर्य समान, श्री जसरंत (?) नाम प्राचार्य माहि गरिष्ठ प्रधान, तेहना प्रसाद थी श्री रूपसिंह प्राचार्यइ सुभाषित नो छत्तीस काव्यमइ प्ररूपी कही । एततै मइ जोडी ॥३७॥ Colophon : इति श्री षट्विंशिका सम्पूर्णम् । श्रीरस्तु, कल्याणमस्तु । 2106/6417 जीवविचार-सस्तबक Closing: एसो जीववियारो संखेवरुईण जाणणा हेऊ । संखित्तो उद्धरिनो रुदानो सुयसमुदायो ।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648