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ओ३म्
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
[परिशिष्टसंग्रहात्मक तृतीय भाग] पहला परिशिष्ट
अपाणिनीय-प्रमाणता इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में संस्कृत-भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास' का सप्रमाण विशद उपन्यास किया है। व्याकरणशास्त्र का अध्ययन करते समय संस्कृत-भाषा की विपुलता और उसके उत्तरोत्तर ह्रास का परिज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा आधनिक वैयाकरणों के द्वारा कल्पित 'प्रपाणिनीयत्वाद प्रप्रमाणम् १० अपशब्दो वा, यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम्' प्रादि विविध नियमों के चक्कर में पड़कर शास्त्रतत्त्व तक पहुंचना दुष्कर हो जाता है। इसीलिये हमने उक्त प्रकरण में २० प्रकार के प्रमाण उपस्थित करके यह सिद्ध किया है कि अति पुराकाल में संस्कृत-भाषा अतिविशाल थी, मानवों के मतिमान्द्यादि कारणों से वह उत्तरोत्तर ह्रास को प्राप्त १५ होकर भगवान् पाणिनि के समय अत्यन्त संकुचित हो गई थी। भगवान् पाणिनि ने यथासम्भव स्वसमय में अवशिष्ट भाषा के व्याकरण का प्रवचन किया।
प्राचीन आर्षवाङमय में बहुधा तथा अर्वाचीन वाङमय में क्वचित् ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जो पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध २० नहीं होते । आधुनिक वैयाकरण इस प्रकार के अपाणिनीय प्रयोगों को प्रसाधु-अपशब्द मानते हैं । परन्तु यह मन्तव्य शास्त्र-सम्मत नहीं हैं, यह हमने प्रथम अध्याय में विस्तार से दर्शाया है। इस प्रसङ्ग में हमने (भाग १, पृष्ठ ४६) भट्ट नारायणकृत 'प्रपाणिनीयप्रमाणता' का निर्देश किया है। यह निबन्ध 'त्रिवेन्द्रम्' में छपा था, सम्प्रति २५ अलभ्य है । पुस्तक का लेखक आधुनिक धुरन्धर वैयाकरण है । इस