Book Title: Sanskrit Vangamay Kosh Part 02
Author(s): Shreedhar Bhaskar Varneakr
Publisher: Bharatiya Bhasha Parishad

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Page 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वाङ्मुख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संसार का समस्त वाङ्मय परम शिव का वाचिक अभिनय है। मानव मन को उन्मुख बनाकर संग्रहणीय ज्ञान को संप्रसारित करनेवाला सारस्वत साधन ही वाक् है जो व्यक्ति को व्यक्त करने की शक्ति प्रदान करती है। वाक् कभी निरर्थक नहीं होती, सदा सार्थक और सशक्त रहती है। वाक् और अर्थ की प्राकृतिक प्रतिपत्ति का प्रापंचिक परिणाम ही वाङ्मय है इसलिए प्रकृति जितनी पुरानी है, वाङ्मय भी उतना ही पुराना है पर नित्य जीवन में नैसर्गिक रूप से निगदित इस वाङ्मय को निगमित, नियमित और नियंत्रित रूप में निबद्ध करने का पहला प्रयास निरुक्तकार और निघंटु-रचना के उन्नायक यास्क की 'समाम्नाय' भावना में पाया जाता है। इस प्रकार वाङ्मय कोश की सबसे प्राचीन और परिनिष्ठित परिकल्पना यास्क कृत “निघंटु" में परिलक्षित होती है। यास्क से पूर्व भी निघंटु-रचना का प्रमाण मिलता है। शाकपूणि की रचना में शब्दों का संकलन और उनका प्रयोजन विवक्षा का विषय रहा। पर यास्क ने पहली बार निघंटु के साथ "निरुक्त" की परिकल्पना कर, शब्द को अर्थ का विस्तार दिया और अर्थ को शब्द का आश्रय दिलाया। आकार में लघु होने पर भी इस ग्रंथ का ऐतिहासिक महत्त्व है क्यों कि विश्व में उपलब्ध वाङ्मय में सबसे प्राचीन कोश होने का गौरव इसी ग्रंथ को प्राप्त है । यास्क से पूर्व "निघण्टु" शब्द का प्रयोग प्रायः बहुवचन में हुआ करता था -- जैसे "निघण्टवः " कस्मात् ? "निगमा इमे भवंति - छांदोभ्यः समाहृत्य समाम्नातास्ते निगतव एव संतो निगमनान्निघण्टव उच्यंते ।" विशाल वैदिक साहित्य से निगमित पद-पदार्थ का वाङ्मय - भण्डार होने के कारण इनको निघण्टु कहा गया और यास्क के पश्चात् यह शब्द कोश के अर्थ में एकवचन में रूढ हो गया। आज भी कुछ भारतीय भाषाओं में शब्दकोश के अर्थ में “निघण्टु" शब्द का प्रयोग बहुधा प्रचलित है । यास्क का "निरुक्त" कोश रचना की प्रक्रिया को एक नया आयाम प्रदान करता है। "निघण्टु" की शब्द-कोशीयता “निरुक्त" में ज्ञान कोशीयता का रूप धारण करती है। शब्द का सही और पूरा ज्ञान प्राप्त करने से (केवल अर्थ ग्रहण करने से नहीं) उसके प्रयोग में अपने आप प्रवीणता प्राप्त होती है। शब्द को आधार बनाकर समस्त संग्रहणीय ज्ञान को उच्चरित करने की इसी प्रवृत्ति ने संस्कृत वाङ्मय में विश्वकोश अथवा ज्ञानकोश की रचनात्मक प्रक्रिया का बीज बोया । यास्क का "निरुक्त" संभवतः इस दिशा में पहला कदम था। आदि शंकराचार्य छांदोग्य उपनिषद् के भाष्य में नारद और सनत्कुमार के संवाद के प्रसंग में नारद द्वारा उल्लिखित अनेक विद्याओं में से एक 'देव-विद्या' की व्याख्या करते हुए उसको निरुक्त की संज्ञा देते हैं। इससे पता चलता है कि "निरुक्त” भावना के प्रति शंकर जैसे ब्रह्मवेत्ता के मन में कितना आदर था । वास्तव में छांदोग्य उपनिषद् के इस प्रकरण को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि विश्व-कोश या ज्ञान कोश की भावना के प्रथम प्रवर्तक नारद ही थे जो कि वेद, पुराण, कल्प, शास्त्र, विद्या आदि ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अपने को पारंगत मानते थे। फिर भी उनको भीतर से शांति नहीं थी क्यों कि उन्होंने सब कुछ पाया, पर आत्मा को नहीं पहचान पाया। इसी अभाव की ओर संकेत करते हुए सनत्कुमार कहते हैं: "तुम जो कुछ जानते हो, वह केवल नाम है” (यद्वै किंचिदध्यगीष्ठा नामैवैतत् ) । तब नारद को पता चलता है कि "हम जिसको ज्ञान मान कर उसका समुपार्जन करते हैं और उस पर गर्व करते हैं, वह केवल नाम है।" नाम शब्द में समस्त लौकिक ज्ञान समाहित है। इसलिए संस्कृत वाङ्मय के प्राचीन कोशकारों ने नाम का आश्रय लेकर ज्ञान का प्रसार करने का स्पृहणीय कार्य किया है। अमरसिंह का "नाम- लिंगानुशासन", जो "अमरकोश" के नाम से संसार भर में प्रसिद्ध है, इसी परंपरा की अगली कड़ी है और बहुत मजबूत कड़ी है। "अमरकोश" पर लिखी गई पचास से अधिक टीकाएं इसकी लोकप्रियता, उपादेयता और प्रत्युत्पन्नता को प्रमाणित करती हैं। चौथी या पांचवी शती (ई.) में प्रणीत यह पद्यबद्ध रचना मूलतः पर्यायवाची शब्द कोश है, पर विश्व-कोश के प्रणयन की प्रेरणा बाद में इसी से मिली है। शाश्वत का "अनेकार्थ- समुच्चय", हलायुध - कोश के नाम से प्रसिद्ध "अभिधान-रत्नमाला” (दसवीं शती) यादवप्रकाश की “वैजयंती”, हेमचन्द्र का “अभिधान- चिन्तामणि", महेश्वर (सन् 1111 ई.) के दो कोश “विश्वप्रकाश" और "शब्दभेद - प्रकाश", मंखक कवि का "अनेकार्थ" (बारहवीं शती) अजयपाल का "नानार्थ संग्रह" (तेरहवीं शती), धनंजय की "नाममाला", केशव स्वामी का "शब्दकल्पद्रुम (तेरहवीं शती), मेदिनिकर का "नानार्थ शब्द कोश" For Private and Personal Use Only

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