________________
१६)
[ष्ठि संघवी धरणा
के चौरासी उत्तम प्रकार के स्तम्भ थे। धर्मशाला में अनेक श्राचार्यों के एक साथ अपने मान-मर्यादापूर्वक ठहरने की व्यवस्था थी। अलग-अलग अनेक व्याख्यान-शालायें बनवाई गई थीं। यह धर्मशाला दक्षिण द्वार के सामीप्य में थोड़े ही अन्तर पर बनाई गई थी।
यह प्रायः प्रथा-सी हो गई है कि तीर्थो में दानशालायें होती ही हैं । तीर्थों के दर्शनार्थ गरीब अम्यागत अनेक आते रहते हैं।
और फिर उन दिनों दानशालायें बनवाने का प्रचार भी अत्यधिक था। अतः धर्मात्मा से० धरणा का राणकपुरतीर्थ में दानशाला खोलने का विचार कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
सं० धरणाशाह का चतुर्थ कार्य अपने लिये महालय बनवाने का है। यह भी उचित ही था । तीर्थ का बनानेवाला तीर्थ की देखरेख की दृष्टि से, भक्ति और उच्चभावों के कारण अपने बनाये हुये तीर्थ में ही रहना चाहेगा।
च्यारई महूरत सामता ऐ लीधा एक ही बार तु, पहिलई देवल मांडीउ ए बीजइ सत्तु कारतु, पौषधशाला अति भक्ति ए मांडीत्र देउल पासि तु, चतुर्थउं महूरत घराउं मंडाव्या आवाश तु,
यह उपरोक्त मेह कवि के वि० सं०१४६६ में बनाये हुये एक स्तवन का अंश है।
मेह कवि ने अपने इसी लम्बे स्तवन में एक स्थल पर इस प्रकार वर्णित किया है
रलियाइति लखपति इणि घरि, काका हिंव कीजई जगडू परि,