Book Title: Samudrabandh Ashirvachan
Author(s): Jinsenvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 7
________________ 18 विभाग त्रीजो ( डाबी तरफनां चित्रो नीचेना चोकठानुं लखाण) श्रीमान महीपालकुं मेघउपमा छप्पय || घन गर्जत आकास तुं घन गर्जत खत पर, जलधार तोय अमोधह बेंन झर । घन विकासत धरत तुं जन हृदय विक्रासन, वन वल्लभ हे मोर. तुं वल्लभ कवि सासन | ओ जलपत तुं दलपत नृपत महीपाल मांन अविचल रहें, मेघ जिस्यों बरसत सदा सु दीपविजय कवि यौं कहे ॥१॥ X Jain Education International - अनुसंधान- २२ विभाग चोथो (समुद्रबंधना मोटा कोठाना ३६ दोहरा) श्रीवरदा कवि मात तुं । महमाई जग आद । तुं चतुरा कवि वच सुधा सुरनर वंदत पाद सोभा भासी जनपती । रमा सहित हरि धीर । दुरित हरत विभुता गुनी । नमें सर्बे जस वीर गवरि तनुज कीजे दया । सब भय चंता वार | नत पय पंकज सबो । सयो तुं एक मन बार व मानसिंह किर्ति । समुद्रबंध दधि नाम । यां रह रवि ससि मेर समु । मुदिर जातिबा काम ||४|| अरिजन मान सुदेख तब । क्योंन डरत चलचित । ज्यों, घु घू भानु निरख रवी होय त्युं हत नित 11411 For Private & Personal Use Only ॥ १ ॥ ॥२॥ 113 11 www.jainelibrary.org

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