Book Title: Samudrabandh Ashirvachan
Author(s): Jinsenvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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January-2003
राजा होंके कछुक गूढार्थ पढ्या चाहीई, या राजनीती हैं ॥ ता गुढ दोहरो हितचिंतन || दधीसुत के नीचे बसें० ॥ इति षष्टम रत्न || ६ || ए धनुष बंध ||६||
राजा होंके दया सहित बेद बांनी सुनों ॥ ताकुं दोहरो हितसिक्षा ॥ धाता बांनी चोमुखी० ॥ इति सप्तम रत्न ||७|| ए पहाड बंध ||७||
राजा होंके दिवान परधान राखें सो राजसुभचिंतक रखें । अरुं राजद्रोहिकुं दूर रखें - करें, या राजनीती हें ॥ ताकुं सिद्धांत की गाथा हितचिंतन || नासइ जुएण घणं० ॥ इति अष्टम रत्न ॥८॥ ए पहाड बंध । ए ८ राजनीती
॥८॥
भूपति मानि मर्दन० || नवस्त्र |||| ए खंडो कलीबंध ||९|| अविचल तपतेज० ॥ इति दसम रत्न || १०|| ए खंडो कलिबंध ॥१०॥ श्री मांनराज गंगाकुल चिरजय । इति एकादसम रत्न ॥११॥ श्रीपुष्करणी
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बंध ॥११॥
पट प्रधान मांनसंग सुदिगविजयोस्तु० ॥ इति द्वादशम रत्न || १२ | ए हर बंध ||१२||
मानराज सम सेरबहादर० ॥ इति त्रयोदशम रत्न || १३|| ए पुष्करणी बंध ॥१३॥
मानराज कुंभ घट मम मनोवांछितदायको भव० ॥ ए छडीबंध इति चतुर्दशम रत्न ॥१४॥
या एक समुद्रबंध मांहे से १४ बंध निकस्ये ॥
१४ फूलकी सेरको १ चोसर हारबंध ॥१॥
१६ | १६ | फूलकी एक सेरके दो दूसेर हारबंध ||३||
१। वज्र मुरजबंध || ४ || दो धनुष बंध ||६||
दो पहाड बंध ||८|| दो खंडो कलिबंध ॥१०॥
दो पुष्करणी बंध ||१२|| एक लेहेर बंध || १३ ||
एक छडीबंध ||१४|| इसे १४ रत्न समुद्रबंध मांहेसे वंचीजे हे सो
समझके वांचणो ||
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