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समुद्रबन्ध आशीर्वचन
सं. मुनि जिनसेनविजय विभाग प्रथम (चित्रनी उपरना भागनुं लखाण)
श्रीजालंधरनाथोर्जयति । ॐ नमः सिद्धम् ।। श्री वरदाई नमः ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः । श्रीमानधाता ११। सेतबंध रामेसर ।२। धीरासर पत्तन ।३। कनोज ।४। पाली ।५। खेड ।६। मंडोवर ७१ जोधपुररत्नघढ ।८। अष्टमतखत श्री मरुधर महापुन्यदेसे ! अगंजगंजन रिपुराजानमानमर्दक मार्तंडावतार पुन्यपात्र वाचाअविचल. गुनगंगाजलनिर्मल संग्रामांगनधीर दानैकसौंडीर परदुःखभंजनविक्रम, दानोपमा- करणनृपसम प्रजाजनआधार न्याई श्रीरामचंद्रावतार समद्धिपुन्यप्रारभार सर्व धर्मार्थकुशल नरोत्कृष्ट नरसिंह सर्वविद्याप्रणित(वीण) सर्वभूपतिसिरोमणि सर्वाभवद्भपतिमौलिहीर श्रीविक्रमसदृशबलवीर औदार्य सौंदर्य धीर्य्य गांभीर्य सर्वगुणालंकृत सर्वशास्त्रार्थपारकोविद सर्वसंस्कृतभाषाग्रंथनिपुन सर्वकलाप्रणित(वीण) धर्माधिष्ट श्रीहिंदूपति-पादसाह निकंटकराजधारक मलेच्छदुर्जयवारक राजभारधुरंधर लक्ष्मीभंडारअभरभर, अनेकनृपसेवित चरन, दुखदीनअसरनसरन, श्रीसूर्यवंशउद्योतकारक, श्रीराठोडकुलसोभाकारक, श्रीगुमाननृपकुलगगनभास्कर, निजमातृकुक्षिरतनागर, गोब्राह्मणप्रतिपाल, पुन्यविशालभाल, अखंडयसकीर्तिप्रनाल, अरिकालकरवाल, प्रचंड भुजाल, इत्यादि अनेक सुभ कोटि उपमा बिराजमान : पुनः श्रीराजाहरचंद सत्यवादी, जयचंदवत् दलपांगुल, श्रीसीहाजीवत् भाग्यवान, श्रीजोधाजीवत् प्रतापवान, श्रीवजमालसदृश एकत्च्छत्र वा(धा)रक श्रीहिंदन-भान, श्री १०८ श्री श्री श्री महाराजाधिराज महाराज श्रीमानसिंहजी ताकुं पुत्रार्थे, राज्यार्थे, लाभार्थे, क्षेमार्थे, जयार्थे, धनार्थे, शत्रुमर्दनार्थे, प्रतापवर्धनार्थे, श्री श्री समुद्रबंध-आसिर्वचन लिख्यते ।।
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तत्रादौ श्रीसमुद्रबंधको महात्म ॥
छप्पय :
समुद्रबंध आसीस, सबपें श्रेष्ठबधाई. । समुद्रमोदिनी अंतसु, एकछत्र अधिकाई । होत निकंटक राज, सबनृप सेर्वत बंका । बंकारिपुर्मदमत्त, पुनि होत संत्रु संका । मेर रवी ससी समुद्रलग, अविचल राजे नित नित बहो । मानराज कविंदीप दोउं, कोटि कोटि मंगल लहौ ॥१॥ पुनः महात्म || छप्पय : . समुद्रबंध फल उदय, गजलीला बहो आवे, समुद्रबंध फलंउदय, सुदिन दिन दोलत थावे । समुद्रबंध फलउदय, सपुत्र कलंत्र सवाई, समुद्रबंध फलंउदय, सुमंगल गीत वधाई । समुद्रबंध महोतम अतुल, राजलील लाभे घणी, मानसीह महीपाल कीसु, कविराज दीप कीरति भनी ॥२॥ यों समुद्रबंध के सर्वाक्षर ।१२९६। अरु १४ रन दूसरी बेर बंचीजे ताके ।३५५। अक्षर हैं। यों सर्व मिलके । १६५१। अक्षर हैं ।। धनुषबंध । चोकी बंध । कपाटबंध । हलबंध । हारबंध । मालाबंध | निसरणीबंध । प्रमुख छोटे छोटे चित्रकाव्य हे ।
सो सब राजाकुं चढे । अरु यो समुद्रबंध बडो चित्रकाव्य आसिरबचन । चक्कवें राजाकुं चढ़े, अरु छत्रपति राजाकुं चढे या नीति है । ता थें छत्रपति श्रीमान महिपालकुं यो आसिर्वचन समुद्रनामा
सदा जयकारी भव भव ॥ श्रेयः ।
१. चक्रवर्ती ।
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अनुसंधान-२२ श्रीमान महिपालकुं श्रीजालंधरनाथ रछ्या आसिर्वचन ।। छप्पय ॥ तीन नयन छवि गयत(न), सयन जितमयन विकटसर, जटाजूट अवधूत, भेख आलेख डिगांबर । सिंघल दोउ गेल, भाल अध चंद सुहंकर, भस्म अंग सिर गंग, उमयपति इश्वर अमर । जलंधरनाथ जगनाथ जगपति देवनाथ संकट हरें, लाडूनाथ कविराज दीपत, मानराज मंगल करें ॥३॥ पुन: छप्पय । जग संतां प्रतिपाल, भाल अधचंद बिराजत, गिरतनया अरधंग, गंग प्तिर ऊपर छाजत । जटा मुगटभरभार. वाहन बेंल दिवाजत, बाघंबर तरसूल, डमरु धुनि घन गाजत । जालंधरनाथ विभूनाथ जटधर देवनाथ सेवत चरन । दीपविजय कविराज राजत मानराज मंगल करन ||४|| अथ महामंदिर श्रीकृष्णदेव स्तुति रछ्या आसिरवचन । छप्पय : गोवरधनधर अधर, अमरनरसेवत सेवत पदकज, गोपनंद घनबरन, भरन जगचरन सरन भज । मोर मुगट छबि लसत नसत सब दुरित विहंडन, जयजयजय जगतिलक, तिलक पुनि जदुकुलमंडन । वसुदेव नंदन कवि दीप राजत जगत सब संकटहरन, मानसिंह महिपालज्युं पें सकल कुसल मंगल करन ॥५॥ .
२. रक्षा ।
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अथ नवग्रह रछ्या आसिरवचन ।। छप्पय : तेज रवी जिम प्रबल, सोम ज्युं सीतल बानी, मानुं मंगलरूप, बुध सदा गुनखानी ।। सुरगुरुज्यु मतिवंत, सुक्र सुकाव्य अलंकित, सनिक अरिंगन मंद राहु ज्युं प्रबल अरिहत । रिपुकुल केत खंडन प्रघल, दीपविजय आसीस बरन, मांन महिपाल पुनितु कुसल, नवे ग्रह मंगल करन ।।६।। अथ सकलदेव रछ्या आसिरवचन] ।। छप्पय : संभुसुतन घनसांम, राम काम पुनि हलधर, सागर गिरवर अमर, चंद सूर लच्छि सुखकर । कामधेन घट कुंभ, कल्पतरु ब्रह्म अमरपत. सिद्धि बुद्धि जगदंब, सुअंबरयन सब संपत । कविराज दीप अरु जगत कविजन, सुबेंन मंगल उच्चरें, महिपाल मान अविचल फतेसु, सकलदेव रछ्या करें ||७|| अथ कविराज दीपविजयको सुबचन रड्या आसिर्वच ॥ छप्पय : तपो नाथ तव राज सुगिरवर रवि ससिष्भाई, तपो नाथ तव राज सुसागर सीमा ताई । तपो नाथ तव राज सेषनाग-फनिमाला, तपो नाथ तव राज सु नितनित मंगलमाला । दारिद दोहग व्याधि संकट वलय होय सागर खपो, कविराज दीप आसिस नितनित मानराज अविचल तपो ॥८॥
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अनुसंधान-२२ इति श्री दीपविजय कविराजेन विरचिताया आसिर्वच अष्टक || श्रीमान नरेन्द्र की उजल यस कीर्ति बरनन ॥ कवित धना छरी ।। मालतीको पूंज मचकुंद को समुंह किधौ, चंद के किरन गंगानीरको उजास हैं । स्फाटक को हार किधौ, मुगताको माल जेंसी, कामगोखीर खीर दधिको प्रभास हैं । सारद को हंस किधौ, इंद गजराज जेंसी, पंकजको उंघ देव धामको विकास हैं । दीप कविराज आज मानमहिपाल तेरी, कीरति उजास च्यारों खुंट में प्रकास हें ॥९॥ पुनःतेज तपधारी सो विहारी सुख सिंधन को. हिंदन को ईस बगसीस बड दानी हैं । गुनको प्रकासी सुविलासी जस कीरतको, पुन्यको उजासी वेंन माधुरी सुहानी हैं । राजनको राज सिरताज सब भपनको. दीपकवि मानराज कीरती तबांनी हें । बाघअज ए कठोर धरामें पिलायो नीर, दूजो वजमाल बेर दूसरी कहानी हें ॥१०॥ अथ प्रताप बरनन । कवित ।। ३१।। गंन बिच सूर जेसें. गंगजंलपूर जेसें. धराधर मेर जेसें, जेसें मृगराज हें । उडुगन चंद जेसें, सुरगन इंद जेसें,
पिंगल के छंद जेसे, जेसें घन गाज हें । १. धनाश्री ।
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खीर गोखीर जेसें, विक्रम बलवीर जेसें, पार्थि रनवीर जेसें, ऐर गजराज हैं । युं सब राज राजबीच, नरन के प्रताप ज्यौं, दीप कविराज आज मांनराज महाराज हे ॥११॥
- xअब समुद्रबंध के ३६ दोहरें लिखे हैं ।
पित समुद्रबंध वाचणेकी रीत या हे के आगों से आडी ओल ३६ वांचणी तामें महाराजको कितिबरनन बंचीजे ।
पिछ्य १४ रत्न बंचीजे सो निचे लिख्या प्रमाणे ॥
विभाग बीजो (जमणी तरफनां चित्रोनी नीचेना चोकठानुं लखाण) अथ श्री मांनमहीपालकी खांग को बरनन ॥
कवित ॥ पावक प्रलयकाल व्याल जीह ज्वाल कीधौ, बालधी बिसाल लंक जालकी सी जानी हें । दारुन सुमन धनु दहन नयन कीधौ, । रक्त बीज ग्रसनी की लसनी लसानी हें । जमकी सी दाढ परसैन में असाडबीज, पातनसी कीधौ वज्रघात सी वखानी हें । गुमान के सपूत महाराज मान तेरी खाग कीधौ, अरी जालनकुं कालकी निसानी हैं ॥१॥
इति खाग वरनन ॥ भद्रं भूयात् ।।
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x
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१. खडग ।
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विभाग त्रीजो
( डाबी तरफनां चित्रो नीचेना चोकठानुं लखाण)
श्रीमान महीपालकुं मेघउपमा
छप्पय ||
घन गर्जत आकास तुं घन गर्जत खत पर, जलधार तोय अमोधह बेंन झर ।
घन विकासत धरत तुं जन हृदय विक्रासन, वन वल्लभ हे मोर. तुं वल्लभ कवि सासन |
ओ जलपत तुं दलपत नृपत महीपाल मांन अविचल रहें, मेघ जिस्यों बरसत सदा सु दीपविजय कवि यौं कहे ॥१॥
X
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अनुसंधान- २२
विभाग चोथो
(समुद्रबंधना मोटा कोठाना ३६ दोहरा)
श्रीवरदा कवि मात तुं । महमाई जग आद । तुं चतुरा कवि वच सुधा सुरनर वंदत पाद सोभा भासी जनपती । रमा सहित हरि धीर । दुरित हरत विभुता गुनी । नमें सर्बे जस वीर गवरि तनुज कीजे दया । सब भय चंता वार | नत पय पंकज सबो । सयो तुं एक मन बार व मानसिंह किर्ति । समुद्रबंध दधि नाम । यां रह रवि ससि मेर समु । मुदिर जातिबा काम ||४|| अरिजन मान सुदेख तब । क्योंन डरत चलचित । ज्यों, घु घू भानु निरख रवी होय त्युं हत नित
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॥ १ ॥
॥२॥
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|॥८॥
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रिपु गयू जनमद सबल तं । पाय नमावत गात । मनुनांम मृगपत्त ज्यों । देख्यो एह विख्यात ॥६।। गुनिजन पथि राजत । निंबोतरु सुच प्राग समान । याथें किय ओपम लिखे । देखो जना सुजान ||७|| भारभूत अरिंगज दलंत । तेग मान भरमार । मिट्यो मित कास्यप उदें । अपय सरूपां धार ॥८॥ तो सुचि निर्मल गंगकुल । कुलइवतो पितमात । रजनीनास भानु समो । कुल विकास बल नीत ।।९।। तूह लील सुगाज चयन, सुचविदजनं प्रवीन । पयीमे नत वसेत गुन, रटे रंग में लीन
॥१०॥ सत बच कुली करन गुनं. सुचधी वाच सोहाय । नम्य यरी मतंग तिको, नाम सुने पुल जाय ॥११॥ कलि रघुनर्पास बिरद । वाग्मी जसु बल न्याय ! भाण रहो नभ जिम सदा. । टीको सब नरराय ॥१२।। तो विक्रम सम क्रम मन । दृढ सत वाचा धीर । प्रभरति निति वरइमा । रिप घनाप--समीर ॥१३।। मति अभेराज सुचत मनु । बुद्धि कलि तुम वृद्ध । गुरौ द्युति सत वाचसा । यस विषेस प्रसिद्ध ॥१४॥ सूभूषन भूषितं लसा । मनुहुंद निजरिद्ध । धीर धर तपतेज बुधासु । विभु त्रिस्तर समृद्ध भजंत तव चट ओय अरिज्युं । जावे किरने मित । हरी रिपव तुं भूपहरी । रहे कुरंगां भीत इमासु जगतां (जगतां) विदित विराजत तव नव निद्ध । गय रह भट पत्तन वरो भुक्ता सब ए रिद्ध
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दक्षु बोधिय काज चटुलसु तेगसें नवि मयेत । धरम निति अरिगर्दयों राज साज संकेत
तुं अखंड न्याईय चलसु । पर तमोघहर साव । भजो स्यांमनामा तुम सुधामप्यति वेक नाव (?) परमड विद सुनाथ तसु । गुरुनीम कीधा रक्त । तिमिरंध शठ निर्गुना । धन्य धीतमति भक्त (?)
भटटातिवुचित जना । नत जसु सोभा भास्व । विंब तपन जिम गगनमि, समक्ष नीको भास्त्र ससि प्रभा भालेधिका तिव्र तरनि तव तेज । तिव्र तेज हिमोजभर इच्छत सुरंगयह हेज
कविगुनको हर्षे तुल्य तुंग कवी विसराम 1 ऋजुं भाव कील यस जलद, सांप्रत गुनी आराम मम इच्छित माधव मनु तु, रामाचल स्तवराज । कुजन याति नंदोपमा इच्छित तत्र साधाज
अनुसंधान-२२
।।१८।।
॥१९॥
||२२||
सुगुन धाम इसु निति सुत नमुं । केवल अमृत बेंन । ज्यांहितो सोमा सिअल, पुनौ दारसुं सेन
||२३||
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॥२१॥
||२४||
सकलमाज सुतर मर्द | दुरित नासो विघनीत । भागूर्वेतव सब बिहासु ! वांछित हो नवण (णी) त तो दान वरकिर्ति संचु । धनंद पती द्युति भाय । तुं प्रजन जन सुपालनो । रिपुनित सेव्वे पाय तों राज सुनि दुर्जन गलत । गुन चटुल नासके संग । वो आभा तिक्ष्ण मती । याँ नही तेरा उमंग
॥२७॥
॥२८॥
॥२५॥
जग जसु राज सोहा धरसु । तों गुन गाते धीतः । यांति पुअनिति कर्म मतिसु । सच गुन भाती नीत ॥ २९ ॥ |
॥२६॥
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यस गुर ज्यु वाचा सुघर । दिल तव सकृत रंग । समरनाथ सन्मथ तनु । भोगु तु हि उमंग ॥३०॥ कुंभमनुरधि कल्पतरु । सुजवी वार्धत्वेश्म । नक्त दिवस वट ज्यों बढत । या तहि अरीकु वेश्म ।।३१।। सुयससे तसु पुन्यसिखर । अविचल नंदी अखेम । नंदी घन ज्यों तो गिरा । संपइ रज्जंपि एम 1॥३२॥ दूषनहर भूषन कवी । सुमती जलधि जिहाज । ज्यौं आभ निहनव उपन । चारु वरघन गाजु विजयसिह वसी गगन । भयो भान यो जीतः । विमान कुंजर वर लिला सर्व भई सुधन इत्थ ॥३४॥ नृपगुमान सुत पटनीधी । प्रौढ पुन्य स्तुति नज्ज । जई राजनिति हि गुनस्सु । सगुनं सौं सइ हेज ॥३५॥ समुद्रबंध सोभाकिती । दीपविजय कवि कीध । राजनृपति कवि कामगवि । भूनाथ नाथ स्मृद्ध ॥३६।।
|॥३३॥
विभाग पांचमो
(कोठानी नीचे- लखाण) ज्यौं कृष्णदेवनें समुद्र मथन करके १४ रत्न निकारें हैं । ताको निर्णय ॥
कवित ।। धुर सिलोक महवृत्त, ति सिलोक लघुवृत्त । दोहा तीन गाथा एकसौ सोहायों हें ।
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एक अरीजीत मान, आसिरवाद हो प्रमान, दोय बिरद उपमासुं प्रार्थनासौ गायो हें । यों भए सु चउदरत्न परखिइं करी प्रयत्न, दधिको सुमंथ करी भांतसें बनायो हैं । बुद्धि कीस गत्ति केलि उगत्ति जुगत्ति गेलि याहि थें समुद्रबंध दीपनें कहायों हें ॥१॥
अब १४ रन रितस्युं लिख देखावे है ।
या समुद्रबंध मांहे से ८ राजनिती आठ रत्न ।
४ आसिरवचन च्यार रत्न । १ बिरद ओपमा एक रत्न ।
१ कवि प्रार्थना एक रत्न । एवं १४ रन स्पष्ट लिखके समझावें हें ।
अनुसंधान-२२
सब जगत अरु विसेषें राजा होके स्त्रीको विश्वास साच मानवो नहीं ॥ या नीति हैं || ताकुं भर्तृहरसतक प्रथम श्लोक हितचितन ॥ यां चितयामि सततं मयि सा विरक्ता०|| इति प्रथम रत्न || एकोसरहार बंध ॥ १॥
राजा होकें राज तो करेई । पि कुछक भगवत भजन किया चाहीई ॥ या राजनीती ॥ ताकुं राम - रछ्याको प्रथम श्लोक-हितशिक्षा ॥ चरितं रघुनाथस्य० ॥ इति द्वितीयरल ||२|| दुसरहारबंध ||२||
राजा होकें दुष्टकुं सिक्षा करें । रहियेत प्रजाको प्रतिपालन करें । या नीती हैं। ताकुं प्रस्थावक स्लोक हितसिक्षा ॥ दधी चंदन तंबोलं० ॥ इति तृतिय र ||३|| ए दुसर हारबंध ॥३॥
राजा होके कछुक व्याकरण शब्द पढा चाहीई ॥ ताकुं सारस्वत व्याकरण को प्रथम श्लोक हितसिक्षा || प्रणम्य परमात्मानं० ॥ इति चतुर्थ रत्न
||४|| वज्रबन्ध ||४||
राजा होंके कछुक हरीरस चातरी पढी चाहीई ॥ ताकुं बिहारीको दोहरो सिक्षा || मेरी भवबाधा हरो० ॥ इति पंचमरत्न ॥५॥ ए धनुषबंध | ५ |
१.
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राजा होंके कछुक गूढार्थ पढ्या चाहीई, या राजनीती हैं ॥ ता गुढ दोहरो हितचिंतन || दधीसुत के नीचे बसें० ॥ इति षष्टम रत्न || ६ || ए धनुष बंध ||६||
राजा होंके दया सहित बेद बांनी सुनों ॥ ताकुं दोहरो हितसिक्षा ॥ धाता बांनी चोमुखी० ॥ इति सप्तम रत्न ||७|| ए पहाड बंध ||७||
राजा होंके दिवान परधान राखें सो राजसुभचिंतक रखें । अरुं राजद्रोहिकुं दूर रखें - करें, या राजनीती हें ॥ ताकुं सिद्धांत की गाथा हितचिंतन || नासइ जुएण घणं० ॥ इति अष्टम रत्न ॥८॥ ए पहाड बंध । ए ८ राजनीती
॥८॥
भूपति मानि मर्दन० || नवस्त्र |||| ए खंडो कलीबंध ||९|| अविचल तपतेज० ॥ इति दसम रत्न || १०|| ए खंडो कलिबंध ॥१०॥ श्री मांनराज गंगाकुल चिरजय । इति एकादसम रत्न ॥११॥ श्रीपुष्करणी
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बंध ॥११॥
पट प्रधान मांनसंग सुदिगविजयोस्तु० ॥ इति द्वादशम रत्न || १२ | ए हर बंध ||१२||
मानराज सम सेरबहादर० ॥ इति त्रयोदशम रत्न || १३|| ए पुष्करणी बंध ॥१३॥
मानराज कुंभ घट मम मनोवांछितदायको भव० ॥ ए छडीबंध इति चतुर्दशम रत्न ॥१४॥
या एक समुद्रबंध मांहे से १४ बंध निकस्ये ॥
१४ फूलकी सेरको १ चोसर हारबंध ॥१॥
१६ | १६ | फूलकी एक सेरके दो दूसेर हारबंध ||३||
१। वज्र मुरजबंध || ४ || दो धनुष बंध ||६||
दो पहाड बंध ||८|| दो खंडो कलिबंध ॥१०॥
दो पुष्करणी बंध ||१२|| एक लेहेर बंध || १३ ||
एक छडीबंध ||१४|| इसे १४ रत्न समुद्रबंध मांहेसे वंचीजे हे सो
समझके वांचणो ||
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अनुसंधान-२२ अथ मोतीदाम छंद ।। त जग सूरज तेज प्रमांन, नमे जस आन बडें महिरान । बडी जस कीरत उज्जल लाज, कहावत सांच गरीब निवाज ||१६ भयो जगपालन तुं नरनाह, जयो अनपूरन पूर अगाह । झरें मदपूर बडे गजराज, गजें मनु साम घटा घन गाज ॥२|| घटाघट अश्वतणी खुर ताल, झगामग बीज जिसी करवाल । अरी सब भाज गए दह वट्ट, भयो जय मंगलके घहघट्ट ।।३।। सदानित जीत घुरंत निसांन, हुओ बखते सगुनी गुनजान । कवीजन आस तणो तरुराज, रवी ससि मेर समो वड साज ॥४|| कहावत हिंदनको सुलतान, दधी (दली?) लग आंन अखंड प्रमान । अनोपम राजकुली वडनूर, बहो चीरजीव तपो जगसूर ॥५॥ रखें सुर छप्पन कोटि सदाय, करें सुर तेतिस कोडि सहाय । गुमानतणां सुत मांन नरेस. तपो तव राज सदा सुविसेस ॥६॥ धरा प्रतिपालन नेक कहाय, हुओ बजमाल सवाय सवाय । सदा दीप विजै कविनाम, कह्यौ इह छंद सुमोत्तिय दाम ।।७।।
___ अथ कवित ॥३१॥ छत्रि सब बंसमें राठोड बंस सूरवीर,
गुमानकुल सिंधु मुगता अदभूतीको प्रबल प्रचंड जस तेरो देस देसनमें,
रूप कांमदेव सो भूषन कनक मोतीको । सूरवीर दान मांन दीपे जस खाग ताग,
तो में सुभ लच्छन हे सुंदर सपूतीको, दीप कविराज आज मान महीपाल दीपें,
तेरे भुज डंडन पर मंडन रजपूतीको ॥२०॥
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अथ तोटक छंदे द्वादस अक्षर सोल मात्रा सहित संस्कृत भाषायां ।। नकमोदपुरारपमेसगिरा, दिरदाईत्रईसुतसोरनजा । चतुराक्षर संधिरधोर्धगता, तवशत्रुगणा(ण)न्नृप हंतु सदा ॥२१।। दीर्घायु भव ३॥ (भव भव भव) ॥
इति श्रीमत्तपागण । श्रीविजयानंदसूरीगच्छे ।
राज श्री गायकवाड दत्त-कविराज बिरद । जत्ती पं. दीपविजय कविराजेन विरचिताया । श्री राठोड कुल गगन भान । महाराजाधिराज । महाराज । श्री मानसिंह महीपाल कित्ति गुन समुद्रबंध आसिरवचन श्रेयः ॥ तोटकछंद देवरछ्या | न क मो| द | पुरा र |प मे | श| गिरा | दिनकर दामोदर दि र | दा र त्र ई सु त सो रन जा त्रपुराई सुरपतच तु | राक्ष र संधि र धो ग ता सोमेसर नगिराजा |त | व | श| त्रु ग णा नृ | प | हं| तु | स दा |
संवत १८७७ वर्षे । शाके १७४२ प्रवर्तमाने । श्री आसोज सुदि विजयादशम्यां । लिखितं । स्वहस्ते ।
पं. दीपविजय कविराजे ॥ -xविभाग छछो समुद्रबन्ध- कोठा- अन्तर्गत
चतुर्दश बन्ध यां चिंतयामि सततं महा(यि) सा विरक्ता. साप्यन्यमिच्छसि(ति)जनं स जनोअ(5)न्य)सक्तः । अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिग् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ।।१।।
एकसरो हारबन्ध ||१||
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________________ 26 अनुसंधान-२२ चरितं रघुनाथस्य शतकोटी स्तरं / एकैकमक्षरं पुंसां महापातिकनाशनं // 2 // दूसर हारबन्ध // 2 // दधि चन्दन तम्बोलं कुच कर्पास भेषजं / इक्षुखण्डे तिले मूर्खे मर्दनं गुणवर्द्धनं // 3 // हारबन्ध // 3 // प्रणम्य परमात्मानं बालधीवृद्धिसिद्धये / सारस्वतिमृनुं कुर्वे प्रक्रियां नातिविस्तराम् // 4|| वज्रमुरजबन्ध // 4 // मेरी भव बाधा हरो, राधानागर सोय / या तनकी ज्यांहिं परे स्यांम हरित द्युति होय / / 5 / / धनुषबन्ध // 5 // दधीसुत के निचे बसें मोतीसुत्तके बीच / सो मागत व्रजनाथ का दिओ सांम दृग्मीच // 6 // धनुषबन्ध // 6 // धाता बानी चोमुखी दीए वेद समजाय / देखो एह बानी विना सब पानीमें जाय // 7 // पहाडबन्ध // 7 // नासइ जूएण घणं नासइ रज्जं कुमंतमंतीहिं / / अइरूवेन(ण) महिला न(ना)संति गुणेन सव्वेण ||8| पहाडबन्ध // 8 // भूपति मानि मर्दन० // खंडौ कलिबन्ध // अविचल तप तेजे० // खंडौ कलिबन्ध // मानराज गंगाकुल चिरजय० // पुष्करणी बन्ध / / पटप्रधान मानसंग सुदिगविजयोस्तु० ।लहेरबन्ध // मानराज समसेर बाहादुर० ॥पुष्करणी बन्ध // मानराज कुंभ घट मम मनोवांच्छित दायको भव० // छडीबन्ध /