Book Title: Samudrabandh Ashirvachan
Author(s): Jinsenvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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January-2003
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यस गुर ज्यु वाचा सुघर । दिल तव सकृत रंग । समरनाथ सन्मथ तनु । भोगु तु हि उमंग ॥३०॥ कुंभमनुरधि कल्पतरु । सुजवी वार्धत्वेश्म । नक्त दिवस वट ज्यों बढत । या तहि अरीकु वेश्म ।।३१।। सुयससे तसु पुन्यसिखर । अविचल नंदी अखेम । नंदी घन ज्यों तो गिरा । संपइ रज्जंपि एम 1॥३२॥ दूषनहर भूषन कवी । सुमती जलधि जिहाज । ज्यौं आभ निहनव उपन । चारु वरघन गाजु विजयसिह वसी गगन । भयो भान यो जीतः । विमान कुंजर वर लिला सर्व भई सुधन इत्थ ॥३४॥ नृपगुमान सुत पटनीधी । प्रौढ पुन्य स्तुति नज्ज । जई राजनिति हि गुनस्सु । सगुनं सौं सइ हेज ॥३५॥ समुद्रबंध सोभाकिती । दीपविजय कवि कीध । राजनृपति कवि कामगवि । भूनाथ नाथ स्मृद्ध ॥३६।।
|॥३३॥
विभाग पांचमो
(कोठानी नीचे- लखाण) ज्यौं कृष्णदेवनें समुद्र मथन करके १४ रत्न निकारें हैं । ताको निर्णय ॥
कवित ।। धुर सिलोक महवृत्त, ति सिलोक लघुवृत्त । दोहा तीन गाथा एकसौ सोहायों हें ।
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