Book Title: Sammetshikhar Giri Ras Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 3
________________ January-2003 43 सिव पाम्या वीसै प्रभू सीधा साधु अनंत । आगलि वलि अति सिझस्यै वर्धमान प्रवदंत ॥४॥ भवउदधि तवा भणी एह शिखरगिर नाव भव्यजीव मिलकर सदा यात्र करै शुभ भाव ॥५॥ इणही ज जंबूद्वीपमै दक्षिण भरत अभिरांम । धन धन पूरब देशमै छै तीरथ गुणधाम ॥६॥ . देशी : नीविया की ॥ साचविय विधि इण परै ए करियें आतम शुद्ध शिखरगिरि वंदियै ए निरमल चित्त धरि बुद्ध शिष० १ भवियण टोली हिलमिली ए गातां गीत रसाल शिष जय बोलो जिन वीसनी ए पहिरो संघपतिमाल । शिष २ तन मन वयण जे वसीकरे ए गोपवो इंद्री पंच शि० धरमी व्रत आराधता ए वाक्य मधुरता संच शि० ३ निज घरथी जब नीसरे ए जात्रा करणनै जाय शि० छेहरि नित जै पालतां ए जनम सफल शुद्ध थाय शि० ४ ईर्याय पंथ सोधता ए पैदल चढणो जोय शि० सर्दहणा गुरुदेवनी ए समकितधारी होय । कपट कदाग्रह परिहरो ए टालो मिथ्यामति संग । सामायिक सुभ भावथी ए ब्रह्मव्रत धार सुचंग शि० ६ भूमि संथारै सूवणो ए सचित्त करो परिहार करीयै नित्य एकासणो ए आदरो एकल आहार शी० ७ तीरथ देखी करौ नूंछणा ए कीजै मन उल्लास शि० मोतियां थाल वधावियै ए प्रगट कीजै पुन्यरास शि० ८ वस्ती वसै पालगंजनी ए वरतें सदा जिनधर्म शि० न्याए राज चोसालसूं ए राजा करै राज्य कर्म शि० ९ दियै प्रदक्षिणा गिरि तणी ए मधुवन कीजै मुकाम शि० शि० ५ ২ি০ शि० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12