Book Title: Sahityik Avdan Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf View full book textPage 3
________________ ३७ कुछ लोग ईरान की ओर और कुछ भारत की ओर आये होंगे। भारत में आने पर 'इयु' की ध्वनियों में परिवर्तन हो गया । उदाहरण के रूप में इयु का हस्व और दीर्घ अ, ए और ओ इण्डो-ईरानी में लुप्त हो गया। ऋग्वेद और अवेस्ता की तुलना से यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप ऋग्वेद और अथर्ववेद में दिखाई देता है। उच्चा, नीचा, दूलभ, पश्चा आदि शब्द इसके उदाहरण हैं। उस समय तक जनभाषा या बोली के ये रूप विकसित होकर छान्दस् का रूप ले चुके थे। इसके बावजूद उसमें जनभाषिक तत्त्व छिप नहीं सके। जनभाषा के परिष्कृत और विकसित रूप पर ही यास्क ने अपना निरुक्तशास्त्र लिखा। पाणिनि के आते-आते वह भाषा निश्चित ही साहित्यिक हो चुकी होगी। पाणिनि के पूर्ववर्ती शाकटायन, शाकल्य आदि वैयाकरणों में से किसी ने जनभाषा को व्याकरण में परिबद्ध करने का प्रयत्न किया हो तो कोई असम्भव नहीं । परवर्ती वैदिककाल में देश्य भाषाओं के तीन रूप मिलते हैं (१) उदीच्य या उत्तरीय विभाषा, (२) मध्यदेशीय विभाषा, (३) प्राच्य या पूर्वीय भाषा । उदीच्य विभाषा सप्तसिन्धु प्रदेश की परिनिष्ठित मध्यदेशीय भाषा मध्यम मार्गीय थी तथा प्राच्य भाषा पूर्वी उत्तर प्रदेश, अवध और बिहार में बोली जाती थी । प्राच्य भाषा-भाषी यज्ञीय संस्कृति में विश्वास न करने वाले प्राच्य लोग थे । भगवान् बुद्ध और महावीर ने इसी जनभाषा को अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया था। पालि- प्राकृत भाषायें इसी के रूप हैं। डॉ० सुनीति कुमार चाटूर्ज्या ने इस सन्दर्भ में लिखा है " व्रात्य लोग उच्चारण में सरल एक वाक्य को कठिनता से उच्चारणीय बतलाते हैं और यद्यपि वे दीक्षित नहीं हैं, फिर भी दीक्षा पाये हुओं की भाषा बोलते हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि पूर्व के आर्य लोग (व्रात्य ) संयुक्त व्यञ्जन, रेफ एवं सोष्म ध्वनियों का उच्चारण सरलता से नहीं कर पाते थे। संयुक्त व्यञ्जनों का यह समीकृत रूप ही प्राकृत ध्वनियों का मूलाधार है। इस प्रकार वैदिक भाषा के समानान्तर जो जनभाषा चली आ रही थी, वही आदिम प्राकृत थी। पर इस आदिम प्राकृत का स्वरूप भी वैदिक साहित्य से ही अवगत किया जा सकता है।” १ — आर्यभाषा के मध्यकाल में द्राविड और आग्नेय जातियों का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। मूर्धन्य ध्वानियों का अस्तित्व द्रविड परिवार का ही प्रभाव भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, पृष्ठ ७२ प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ ६. १. For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_04 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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