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सुपार्श्व
चन्द्रप्रभ
सुविधि
शीतल
। श्रेयांस
वासुपूज्य
पद्य
सोम शर्मा कहता है-"राजकुमार ! आप तो जानते ही हैं, महाराज सिद्धार्थ के स्वर्गवासी होने के बाद मैं इधर-उधर जनपदों में भटकता रहा, देश-देश की धूल छानता रहा। दो वर्ष भटक-भटककर आज ही प्रातःकाल घर पर आया हूँ। आते ही मेरे परिवार वालों ने बताया-"आपने एक वर्ष तक दान की मेघ वर्षा की, कल्पवृक्ष की भाँति सभी को मनोवांछित दान दिया, परन्तु मैं भाग्यहीन बचा रहा, आपके दानी कर-कमलों से एक कण भी प्राप्त नहीं कर सका, कुमार ! घर पर आते ही पता चला कि आप आज ही सब राज-ऐश्वर्य त्यागकर श्रमण बन गये हैं कुमार वर्द्धमान ! मुझ दीन पर दया करो, मेरी दरिद्रता को | ध्वजा अपने मेघवर्षी हाथों से धो डालो।" ___महावीर का कोमल करुणाशील मानस ब्राह्मण की दयनीय दशा देखकर पसीज गया। अपने कंधे पर रखे . देवदूष्य वस्त्र का एक पट (खण्ड) ब्राह्मण के हाथों में थमा दिया। देवदूष्य को पाकर ब्राह्मण की प्रसन्नता का आर-पार नहीं रहा।
कुम्भ ___ इस वस्त्र को लेकर सोम शर्मा वस्त्र रफू करने वाले कारीगर के पास आकर इसका मोल पूछने लगा। रफूगर ने पूछा-"ब्राह्मण देवता ! यह दिव्य देवदूष्य आपको कहाँ मिला? यह तो उसका एक पट है, यदि एक पट और ले आओ, तो मैं इसका पूर्ण वस्त्र तैयार कर दूंगा। एक लाख स्वर्ण-मुद्रा में कोई भी श्रीमंत इसे खरीद लेगा।" ____ लालची सोम शर्मा दौड़कर पुनः श्रमण महावीर के निकट आया और उनके पीछे हो लिया। लगभग एक
सरोवर वर्ष बाद महावीर के कंधे से देवदूष्य का दूसरा टुकड़ा गिर पड़ा। ब्राह्मण ने चुपके से उसे उठा लिया और रफूगर के पास लौटा। सोम शर्मा ने वस्त्र पट ठीक करवाकर महाराज नंदिवर्धन को एक लाख स्वर्ण-मुद्रा प्राप्त करके दे दिया। (चित्र M-14) प्रथम उपसर्ग : पुरुषार्थ का पाठ
श्रमण महावीर ज्ञातखण्ड वन से निकलकर एक लम्बे सँकरे सुनसान मार्ग पर चल पड़े तो चलते गये। रास्ते में एक छोटी-सी बस्ती “कूरिग्राम" आ गया जिसका नाम आज कामन छपरा है। सूर्यास्त बेला नजदीक जानकर भगवान महावीर इसी गाँव के बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहर गये। दोनों हाथ घुटनों की तरफ नीचे |
विमानझुकाए, नाक के अग्र भाग पर दृष्टि स्थिर कर भगवान महावीर वृक्ष की भाँति स्थिर ध्यानलीन हो गये। भवन ___ एक ग्वाला अपने बैलों के साथ वहाँ आया। गो-दोहन का समय हो गया था, दूध दुहने के लिये उसे गाँव मे जाना था, बैलों को कहाँ बाँधे? वृक्ष के नीचे श्रमण महावीर खड़े दिखाई दिये, तो सोचा-"यह भिक्खु खड़ा है, काम बन गया। पास आया, बोला-"भिक्खु, मेरे बैलों का ध्यान रखना, अभी गो-दोहन कर आता हूँ।"
राशि फ चला गया। बैल घास चरते-चरते वन में दूर बहुत दूर निकल गये। कछ समय के बाद ग्वाला अपना काम कर वापस लौटा, आस-पास बैल दिखाई नहीं दिये। श्रमण महावीर से पूछा-"भिक्खु, मेरे बैल कहाँ गये?" महावीर तो मौन, ध्यानस्थ। कुछ भी उत्तर नहीं मिला। उधर दोनों बैल घूमते-घामते भगवान महावीर के निकट ही आकर बैठ गये। प्रातः सूर्योदय का समय हुआ, ग्वाला भटकता-भटकता वापस
अग्नि भगवान महावीर : श्रमण-जीवन
( १२७ ) Bhagavan Mahavir : The Life as an Ascetic
समुद्र
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ཁམས་བབས་འབབ་མཁས་ན་མཁས་
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