Book Title: Sachitra Tirthankar Charitra
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 236
________________ ___ ऋषभ () ऑल () सम्म (2) अभिनन्दन (जुन (O) (O) अजित सम्भव अभिनन्दन। सुमति पद्मप्रभ | परिशिष्ट २ सिंह तीर्थंकर होने के मूल आधार : बीस स्थानक गज वृषभ लक्ष्मी तीर्थंकर वैसे एक जन्म के पुरुषार्थ की प्रक्रिया नहीं है। अनेक जन्मों में सत्पुरुषार्थ से आत्म-शक्ति क्रमशः अनावृत होते-होते तीर्थंकर स्वरूप को प्राप्त करती है। तीर्थंकर होने का पुरुषार्थ कब से प्रारम्भ हुआ? उन भवों की गणना प्रायः मिलती है। लगता है तीर्थंकर बनने के बाद गणधरों, देवों या इन्द्रों के द्वारा यह जिज्ञासा प्रस्तुत की जाती है कि यहाँ तक पहुँचने में कितने जन्म लगे होंगे? इसका उत्तर तीर्थंकर देव स्वयं दे देते थे। मुझे इतने जन्म लगे हैं। तभी सभी तीर्थंकरों के पूर्व-भव जैन साहित्य में उल्लिखित हैं। आचार्यों ने भवों की गिनती पहले पहल सम्यक दर्शन की प्राप्ति हुई वहाँ से ली है। जैन दर्शन में सम्यक दर्शन की उपलब्धि को बहुत बड़ी उपलब्धि माना है। इसकी प्राप्ति से मोक्ष जाने की भवितव्यता नियत हो जाती है। कितने जन्म पहले उसकी प्राप्ति हुई? अथवा उसकी प्राप्ति के बाद सर्वज्ञ बनने तक कितने जन्म और करने पड़े? यह जिज्ञासा धार्मिक जगत् में हर किसी के लिए होती होगी। तीर्थंकरों के भवों की गणना हमें प्राप्त है। वैसे तो यह गणना भी व्यावहारिक है। सिर्फ पंचेन्द्रिय भवों की गणना है, अन्य भवों की गणना नहीं है। तीर्थकर-नाम-कर्म की प्रकृति का बंध तीर्थंकर-नाम पुण्य प्रकृति सर्वाधिक शुभ मानी गई है। उसका बंधन कब होता है यही सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। तीर्थंकर होने का आधार इसी से निर्मित होता है। इस कर्म प्रकृति के बिना कोई भी आत्मा तीर्थंकर बन नहीं सकती। इसलिए तीर्थंकर नाम प्रकृति का बंध कब होता है, यह विशेष महत्त्वपूर्ण है। __तीर्थंकर-गोत्र-कर्म के साथ अन्य प्रकृतियों का परिपूर्ण बंध हुआ हो, अपने परिश्रम से संसार का किनारा ले लिया हो, तब तीर्थंकर होने की भूमि बनती है। तीर्थकर बनने से एक जन्म पूर्व.तीर्थकर-नाम-कर्म का बंधन हो ही जाता है। तीर्थंकर-नाम-कर्म औदारिक शरीर से ही बँधता है। वैक्रिय शरीर से इस प्रकृति का परिपूर्ण बंधन नहीं होता। तीर्थकर भी स्वर्ग से आकर अथवा नरक से निकलकर बनते हैं। दोनों स्थानों पर शरीर वैक्रिय है। वैक्रिय शरीर से दीर्घकालीन वह पुरुषार्थ नहीं होता जो औदारिक शरीर से किया जा सकता है। यही कारण है-जितने तीर्थंकर होते हैं वे तीर्थंकर बनने से पहले स्वर्ग-नरक के भव से पूर्व मनुष्य शरीर से इस प्रकृति के बंध योग्य पुरुषार्थ करते हैं। उस समय में उनमें उत्कृष्ट दर्शन-विशुद्धि हो जाती है। वे क्षायक सम्यक्त्वी बन जाते हैं। ___ आचार्यों ने यह भी बताया है कि तीर्थंकर बनने के लिए क्रिया नहीं करनी चाहिए। तीर्थंकर-नाम प्रकृति कर्मजन्य प्रकृति है, उसका बंधन भी बंधन है। पुण्य के लिए भी सत्पुरुषार्थ करना निषिद्ध है। बंधन के लिए अध्यात्मवादी कभी क्रिया नहीं करते। क्रिया निर्जरा के लिए की जाती है। अमुक प्रकार की क्रिया होने से कर्म-क्षय और इस प्रकृति का बंध हो सकता है। ये क्रियायें बीस प्रकार की हैं, उन्हें तीर्थंकर-गोत्र-कर्म बंध के बीस स्थान भी कहा जाता है। ये तीर्थंकर होने के मूल आधार माने गये हैं। ये बीस स्थान अग्र प्रकार हैं पुष्पमाला चन्द्र Illustrated Tirthankar Charitra ( १७८ ) सचित्र तीर्थंकर चरित्र विमल अनन्त धर्म शान्ति कन्थ अर। He Jain Education international 20 TULUS Torvaldssonarostomy www.jainemorary.org

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