Book Title: Sachitra Tirthankar Charitra
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 277
________________ 1) सुपार्श्व चन्द्रप्रभ सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य परिशिष्ट १४ तीर्थंकरों की समवसरण रचना ध्वजा पद्य सरोवर [आज के युग में विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की भाँति सभा विज्ञान भी विकसित हुआ है। एक विशाल प्रवचन सभा में लाखों मनुष्यों के आने, बैठने और शान्तिपूर्वक प्रवचन सुनने और वापस शान्तिपूर्वक जाने की व्यवस्था करना-एक बहुत बड़ी व्यवस्थाप्रवण बुद्धि का कार्य है। इस व्यवस्था के लिए बड़े-बड़े विशेषज्ञ अपनी कुशलता का प्रदर्शन करते हैं। फिर भी विशाल सभाओं में भगदड़ मचती है, अव्यवस्था में सैकड़ों लोग दबे कुचले जाते हैं। हजारों की भीड़ को नियंत्रित करने में पुलिस के भी हाथ-पैर ढीले पड़ जाते हैं। ___ आज से हजारों वर्ष पूर्व तीर्थंकरों के समवसरण की रचना होती थीं, जिसमें लाखों मनुष्य ही नहीं किन्तु अगणित देव और तिर्यंच भी आते थे। एक योजन अर्थात ४.कोस (१२ किलोमीटर) लगभग के क्षेत्रफल में सभा-मंडप में अगणित देव, मनुष्य व तिर्यचों का आगमन, सभी का अपने-अपने नियत स्थान पर आसन ग्रहण करना, वाहनों के लिए पार्किंग व्यवस्था तथा प्रवचन सुनकर तीर्थंकरों का प्रसाद ग्रहण कर वापस शान्तिपूर्वक जाने की यातायात व्यवस्था का व्यवस्थित और वैज्ञानिक वर्णन जो प्राचीन निर्यक्ति आदि ग्रंथों में मिलता है वह सचमुच आश्चर्यकारक होने के साथ ही उस युग की विकसित कुशल व्यवस्था-बुद्धि का भी परिचायक है। तीर्थंकरों के समवसरण की रचना के विषय में यहाँ संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत है। तीर्थंकरों के समवसरण का दर्शन, चिन्तन और अनप्रेक्षण करने से भावना, श्रद्धा, प्रतीति और सम्यक्त्व की स निर्मल एवं सुदृढ़ होती है। वीतराग तीर्थंकरों के सान्निध्य में बैठने (उपासना) से, उनके दर्शन और प्रवचन-श्रवण से उनके भामण्डल तथा विविध अतिशयों के प्रभाव से मनुष्यों और देवों के ही नहीं, तिर्यंचों के जीवन में भी शुभ भावों का प्रादुर्भाव हो जाता है। परस्पर विरोधी प्रकृति वाले तिर्यंचों और मानवों में परस्पर वैर वृत्ति और क्रूर वृत्ति शान्त हो जाती है। वहाँ रोग, शोक, उपद्रव, भय, संकट आदि भी निकट नहीं आते। इतना ही नहीं तीर्थंकर के प्रवचन श्रवण से ज्ञान, विज्ञान आदि से लेकर क्रमशः संवर, निर्जरा और मोक्ष की उपलब्धि का भी अलभ्य लाभ मिलता है।' समवसरण में भगवान के दर्श-वन्दन-श्रवणादि का महान् फल भगवान महावीर का समवसरण में पर्दापण का वृत्तान्त सुनकर उनके दर्शन श्रवणादि का महाफल बताते हुए कहा है-“हे देवानुप्रियो ! यह हमारे लिए महाफल का कारण है। तथारूप अरिहन्त भगवन्तों के नाम-गोत्र का सुनना भी महाफलरूप है, फिर उनके अभिगमन (सन्मुख जाने), वन्दन, नमन, परिपृच्छा, पर्युपासना का तो कहना ही क्या? आर्य सद्धर्म के एक भी सुवचन का श्रवण बहुत बड़ी बात है। उनका वन्दन, नमनादि इस भव में, पर-भव में, जन्म-जन्मान्तर में, हमारे लिए हितकर, सुखकर, शान्तिप्रद निःश्रेयसरूप-मोक्षप्रद होगा।"२ समुद्र विमानभवन Y राशि १. "सवणे नाणे वित्राणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव वोदाणे अकिरिया सिद्धि।" -भगवती सूत्र, श. २३-५/१११ २. समणे भगवं महावीरे इह समोसढे तं महाफलं भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं णाम-गोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण-णमसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए? एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए? -औपपातिक सूत्र, सू. ३८ निधूम परिशिष्ट १४ ( २१९ ) Appendix 14 Prendresumeimeroe-only

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